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काल का स्वरूप
काल की पृथक् द्रव्यता अस्वीकृति में तर्क
जो दार्शनिक काल की पृथक् द्रव्यता अङ्गीकार नहीं करते, वे कहते हैं कि धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का पर्याय ही काल है, उसका पृथक् अस्तित्व असिद्ध है। इस मत के प्रतिपादन में व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में निरूपित भगवान् महावीर एवं गौतम गणधर के मध्य संवाद प्रमुख आधार है । गौतम गणधर ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया- "किमिदंभंते! काले त्ति पवुच्चति।' भगवन् यह काल किसे कहा जाता है? भगवान् ने उत्तर दिया- जीवाचेव अजीवा चेव। अर्थात् काल जीव भी हैं और अजीव भी। जीवों की पर्याय रूप से यह काल जीवस्वरूप है एवं अजीव द्रव्यों की पर्याय रूप में यह अजीव रूप है। स्थानाङ्गसूत्र में भी कहा गया है- समयाति वा आविलयति वा जीवाति वा अजीवाति वा पवुच्चति अर्थात् जो पर्याय उत्पन्न होती है एवं विलीन होती है, वह जीव एवं अजीव पर्याय ही होती है। ___ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य में भी काल का जीव और अजीव द्रव्यों के पर्याय रूप में उल्लेख किया गया है । वहाँ पर कथन है- "सो वत्तणाइरूवो कालो दव्वस्स चेव पज्जाओ।" वह वर्तनादिस्वरूप काल द्रव्य की ही पर्याय है। हरिभद्रसूरि विरचित धर्मसंग्रहणि के टीकाकार मलयगिरि का भी कथन है कि काल जीव एवं अजीव द्रव्यों का पर्याय होता है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। मलयगिरि के शब्दों में- “जीवादिवस्तु से व्यतिरिक्त काल नामक परिकल्पित पदार्थ प्रत्यक्ष से कहीं उपलब्ध नहीं होता है।728 टीकाकार मलयगिरि यहाँ काल के द्रव्यत्व को अङ्गीकार करने वाले वैशेषिक मत को पूर्वपक्ष में उपस्थापित करते हैं"प्रत्यक्ष से काल भले ही उपलब्ध न हो, अनुमान से तो उसकी प्राप्ति होती है, क्योंकि पूर्वापर व्यवहार देखा जाता है । वह पूर्वापर व्यवहार वस्तु के स्वरूप मात्र का निमित्त नहीं होता है, क्योंकि वह तो वर्तमान में भी होता है । इसलिए वह जिस निमित्त से होता है वह काल है। उस काल का पूर्वत्व और अपरत्व स्वयं जान लेना चाहिए, अन्यथा अनवस्था का प्रसङ्ग आता है । अतः पूर्वकालयोगी पूर्व है तथा अपरकालयोगी अपर है।" कहा गया है-"पूर्वकालादियोगी यःसपूर्वाद्यपदेशभाक् पूर्वापरत्वंतस्यापिस्वरूपादेवनान्यतः।"