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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
दार्शनिक विज्ञानभिक्षु ने आकाश से ही उत्पन्न स्वीकार किया है।" मीमांसा दर्शन में काल का स्वरूप वैशेषिक दर्शन के ही समान माना गया है । पार्थसारथि मिश्र की शास्त्रदीपिका टीका के व्याख्याकार पंडित रामकृष्ण का मंतव्य है कि वैशेषिक जहाँ काल को अप्रत्यक्ष मानते हैं, वहाँ मीमांसक मत में वह प्रत्यक्ष है। अद्वैत वेदान्त दर्शन में व्यावहारिक रूप से काल को स्वीकार किया गया है । वेदान्त परिभाषा में नैमित्तिक प्रलय में काल को निमित्त माना गया है। शुद्धाद्वैत दर्शन में काल को अतीन्द्रिय होने से कार्य से अनुमित स्वीकार किया गया है ।" बौद्धदर्शन में भी भूत, भविष्य एवं वर्तमान के रूप में काल स्वीकृत है। काल-क्षण को स्वीकार करने के आधार पर ही वस्तु को क्षणिक कहा गया है। ___ व्याकरणदर्शन में भी काल की चर्चा प्राप्त होती है। भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में काल समुद्देश के अन्तर्गत काल के स्वरूप एवं भेदों पर विचार किया है। काल को हेलाराज ने अमूर्त क्रिया के परिच्छेद का हेतु प्रतिपादित किया है- कालोऽमूर्तक्रियापरिच्छेदहेतुः। उत्पत्ति, स्थिति और विनाश क्रियाओं में तथा इन क्रियाओं से युक्त पदार्थों की उत्पत्ति आदि में काल निमित्त कारण होता है। जैनदर्शन में काल की द्रव्यता विषयक मतभेद
जैन दर्शन में काल को द्रव्य स्वीकार करने के सम्बन्ध में मत-वैभिन्य है । तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति अथवा उमास्वामी 'कालश्चेत्येके" सूत्र से मतभेद का संकेत करते हैं । जैन दर्शन में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा गया है", अतः उसमें काल द्रव्य का समावेश स्वतः हो जाता है, किन्तु भगवतीसूत्र में लोक को पंचास्तिकायात्मक भी कहा गया है पंचास्तिकाय में काल का अन्तर्भाव नहीं होने से उसकी पृथक् द्रव्यता पर प्रश्नचिह्न उपस्थित होता है । दिगम्बर परम्परा में तो निर्विवाद रूप से काल को द्रव्य अङ्गीकार किया गया है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में दो मत हैं । कुछ श्वेताम्बर जैन दार्शनिक काल को पृथक् द्रव्य अंगीकर करते हैं तथा कुछ नहीं । इन दोनों मतों का उल्लेख जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य में, हरिभद्रसूरि विरचित धर्मसंग्रहणि में, उपाध्याय विनयविजय की कृति लोकप्रकाश आदि ग्रन्थों में संप्राप्त है ।