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अनुक्रमणिका-अनुपदसूत्र
सांख्यमतानुसार सभी प्रवृत्तियाँ स्वार्थ (अपने वास्ते) का उल्लेख संहिता में नहीं है, परन्तु ब्राह्मणग्रन्थों में है। होती हैं, या परार्थ (दूसरे के वास्ते) । प्रकृति तो जड़ है। अनुक्रमणी-वैदिक साहित्य के अन्तर्गत एक तरह का ग्रन्थ । इसको अपने प्रयोजन और दूसरे के प्रयोजन का कुछ ज्ञान इससे छन्द, देवता और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि का पर्यायक्रम नहीं है । तब इसकी प्रवृत्ति किस तरह होगी। यदि कहें से पता लगता है। ऋक्संहिता की अनुक्रमणियाँ अनेक कि चेतन जीवात्मा अधिष्ठाता होकर प्रवृत्ति करा देगा है जिनमें शौनक की रची अनुवाकानुक्रमणी और कात्यातो यह भी नहीं बनता, क्योंकि जीवात्मा प्रकृति के सम्पूर्ण यन की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्हीं दो रूप को जानता नहीं, फिर उसका अधिष्ठाता कैसे हो पर बहुत विस्तृत एवं सुलिखित टीकाए हैं। एक टीका सकता है ? इसलिए प्रकृति की प्रवृत्ति के लिए सर्वज्ञ कार का नाम षड्गुरुशिष्य है। यह पर अधिष्ठाता ईश्वर मानना चाहिए। किन्तु इस तर्क से वास्तविक नाम क्या था और इन्होंने कब यह ग्रन्थ लिखा। ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि पूर्णकाम ईश्वर का अनुगीता-महाभारत में श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त अपना कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर वह अपने वास्ते, या अनुगीता भी पायी जाती है। यह गीता का सीधा अनुदूसरे के लिए जगत् को क्यों रचेगा ? बुद्धिमान् पुरुष की करण है। इसके परिच्छेदों में अध्यात्म सम्बन्धी विज्ञान प्रवृत्ति निज प्रयोजनार्थ, अपने ही लिए संभव है, अन्य के की कोई विशेषता परिलक्षित नहीं होती, किन्तु शेष, लिए नहीं । यदि कहें कि दया से निष्प्रयोजन प्रवृत्ति भी विष्णु, ब्रह्मा आदि के पौराणिक चित्रों के दर्शन यहाँ होते हो जाती है, तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि सृष्टि से हैं। विष्णु के छः अवतारों-वराह, नसिंह, वामन, पहले कोई प्राणी नही था, फिर किसके दुःख को देखकर मत्स्य, राम एवं कृष्ण का भी वर्णन पाया जाता है। करुणा हुई होगी? यदि ईश्वर ने करुणा के वश होकर अनग्रह-शिव की कृपा का नाम । पाशुपत सिद्धान्तानुसार सृष्टि की होती तो वह सबको सुखी ही बनाता, दुःखी पशु (जीव) पाश (बन्धन) में बँधा हुआ है। यह पाश नहीं । पर ऐसा देखने में नहीं आता, अपितु जगत् की तीन प्रकार का है-आणव (अज्ञान), कर्म (कार्य के परिसृष्टि विचित्र देखी जाती है। यदि कहें कि जीवों के __णाम) और माया (जो इस सृष्टि के स्वरूप का कारण कर्माधीन होकर ईश्वर विचित्र सृष्टि करता है, तो कर्म
है) । शाङ्कर मत में जो माया वणित है उससे यह माया की प्रधानता हई, फिर बकरी के गले के निष्प्रयोजन स्तन भिन्न है। यहाँ दश्य जगत के यथार्थ प्रभाव को दर्शाने. की तरह ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं । इस
सत्य को ढंकने एवं धोखा देने के अर्थ में यह प्रयुक्त हुई है । प्रकार सांख्य का सिद्धान्त है कि ईश्वर की सत्ता में कोई
इन बन्धनों में जकड़ा हुआ पशु सीमित है, अपने शरीर प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अतः उसकी सिद्धि नहीं हो
(आवरण) से घिरा हुआ है । 'शक्ति' इन सभी बन्धनों में सकती (ईश्वरासिद्धेः)।
व्याप्त है और इसी के माध्यम से पति का आत्मा को अनुक्रमणिका (कात्यायन की)-वेदों के विषयगत विभाजन
अन्धकार में रखने का व्यापार चलता है। शक्ति का को अनुक्रमणिका कहा जाता है । ऋग्वेद का दस मण्डलों
व्यापकत्व पति की दया अथवा अनुग्रह में भी है। इस में विभाजन ऐतरेय आरण्यक और आश्वलायन तथा
अनुग्रह से ही क्रमशः बन्धन कटते हैं तथा आत्मा की मुक्ति शांखायन के गृह्यसूत्रों में सबसे पहले देखने में आता है। होती है। कात्यायन को अनुक्रमणिका में मण्डल विभाजन का उल्लेख अनुपदसूत्र (चतुर्थ साम)-इस ग्रन्थ में दस प्रपाठक हैं। नहीं है । कात्यायन ने दूसरे प्रकार के विभाजन का अनु- इन सूत्रों का संग्रहकार ज्ञात नहीं है। पञ्चविंश ब्राह्मण सरण करके अष्टकों और अध्यायों में ऋग्वेद को विभक्त के बहुत-से दुर्बोध वाक्यों की इसमे व्याख्या की गयी है। माना है।
इसमें षड्विंश ब्राह्मण की भी चर्चा है। इस ग्रन्थ से अनुक्रमणिका और संहिता-अनुक्रमणिका में संहिता बहुत-सी ऐतिहासिक सामग्री और प्राचीन ग्रन्थों के नाम
और ब्राह्मणग्रन्थों में कोई भेद नहीं किया गया है । किसी- भी ज्ञात होते हैं। जान पड़ता है कि इसके अतिरिक्त किसी शाखा में जिन बातों का उल्लेख संहिता में नहीं है, स्वतन्त्र रूप से सामवेद के श्रौतसूत्रों के कई ग्रन्थ सगृहीत ब्राह्मणग्रन्थों में उनका उल्लेख हुआ है। जैसे, नरमेध यज्ञ हुए थे।
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