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अष्टाविंशतितमं पर्व
दिशा रावणमाकान्म्याचलग्राहं विभीषणम् । रक्षसामिव संपातमतिकायं महोदरम् ॥७॥ वीची बाहुभिराघ्नन्तमजस्रं तटवेदिकाम् । समर्यादत्वमाहत्य श्रावयन्तमिवात्मनः ॥७॥ चलभिरचलोदः कल्लोलैरतिवर्तिनम् । सरिघुवतिसंभोगादसंमान्तमिवात्मनि ॥४०॥ तरहिगततर्नु वृद्धं पृथुकं व्यतरङ्गितम् । सरत्नमतिकान्ताङ्ग सग्राहमतिभीषणम् ॥१॥ लावण्यऽपि न संभोग्यं गाम्भीर्यऽप्यनवस्थितम् । महत्त्वेऽपि कृताक्रोश व्यक्तमेव जलाशयम् ॥२॥ न चास्य मदिरासङगो न कोऽपि मदनज्वरः । तथाप्युद्रित कन्दर्पमारूढमधुविक्रियम् ॥८३॥
का अन्य जल ग्रहण करनेके लिए तत्पर रहता था। वह समुद्र समस्त दिशाओं में व्याप्त होकर शब्द कर रहा था इसलिए 'रावण' था, उसने अनेक पहाड़ अपने जलके भीतर डुबा लिये थे इसलिए 'अचल ग्राह' था। वह सब जीवोंको भय उत्पन्न कराता था इसलिए विभीषण था, अत्यन्त बड़ा था इसलिए 'अतिकाय' था और बहुत गहरा होनेसे 'महोदर' था इस प्रकार वह ऐसा जान पड़ता था मानो राक्षसोंका समूह ही हो। वह समुद्र अपनी तरंगरूपी भुजाओंके द्वारा किनारेकी वेदीपर निरन्तर आघात करता रहता था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो धक्का देकर उसे अपने समर्यादपनेको ही सुना रहा हो । वह पर्वतके समान ऊँची उठती हई लहरोंसे किनारेको उल्लंघन कर रहा था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो नदीरूप स्त्रियोंके साथ सम्भोग करनेसे अपने-आपमें ही नहीं समा रहा हो। उसके शरीरमें अनेक तरंगरूपी सिकुड़नें उठ रही थीं इसलिए वह वृद्ध पुरुषके समान जान पड़ता था, ( पक्षमें अत्यन्त बड़ा था ) अथवा वह समुद्र किसी पृथुक अर्थात् बालकके समान मालूम होता था ( पक्षमें पृथुक अधिक है जल जिसमें ऐसा था ) क्योंकि जिस प्रकार बालक पृथिवीपर घुटनोंके बल चलता है उसी प्रकार वह समुद्र भी लहरोंके द्वारा पृथिवीपर चल रहा था, जिस प्रकार बालक सरकता है उसी प्रकार वह भी लहरोंसे सरकता था, जिस प्रकार बालक अत्यन्त सुन्दर होता है उसी प्रकार वह भी अत्यन्त सुन्दर था। इसके सिवाय वह समद्र मगरमच्छ आदि जलचरजीवोंसे सहित था तथा अत्यन्त भयंकर था अथवा वह समुद्र स्पष्ट ही जलाशय (ड और ल में अभेद होनेसे जडाशय ) अर्थात् मूर्ख था क्योंकि लावण्य रहनेपर भी वह उपभोग करने योग्य नहीं था जो लावण्य अर्थात् सुन्दरतासे सहित होता है वह उपभोग करने योग्य अवश्य होता है परन्तु समद वैसा नहीं था ( पक्ष में लावण्य अर्थात खारापन होनेसे किसीके पीने योग्य नहीं था ) गम्भीरता होनेपर भी वह स्थिर नहीं था, जो गम्भीरता अर्थात् धैर्यसे सहित होता है वह स्थिर अवश्य रहता है परन्तु समुद्र ऐसा नहीं था ( पक्ष में. गम्भीरता अर्थात् गहराई होनेपर भी वह लहरोंसे चंचल रहता था ) और महत्त्वके रहते हुए भी वह चिल्लाता रहता था-गालियाँ बका करता था, जो महत्त्व अर्थात बडप्पनसे सहित होता है वह बडा शान्त रहता है. चिल्लाता नहीं है परन्तु समुद्र ऐसा नहीं था (पक्षमें बड़ा भारी होनेपर भी लहरोंके आघातसे शब्द करता रहता था ) इन सब कारणोंसे स्पष्ट है कि वह जडाशय अवश्य था ( पक्षमें जल है आशयमें जिसके अर्थात जलसे भरा हुआ था)। उस समुद्रके यद्यपि मद्यका संगम नहीं था-मद्यपानका अभाव था तथापि वह आरूढ मधुविक्रिय था अर्थात् मद्यपानसे उत्पन्न होनेवाले विकारनशाको धारण कर रहा था, इसी प्रकार यद्यपि उसके काम-ज्वर नहीं था तथापि वह उद्रिक्तकन्दर्प था अर्थात् तीव्र काम-विकारको धारण करनेवाला था । भावार्थ-इस श्लोकमें श्लेष१ रौतीति रावणस्तम् । शब्दं कुर्वन्तमिति यावत् । पक्षे दशास्यम् । २ पर्वतस्वीकारवन्तम् । पक्षे अचलग्राहमिति कंचिद् राक्षसम् । ३ भयंकरम् । पक्षे रावणानुजम् । ४ अतिशयं मूर्तिम् महान्तमित्यर्थः । पक्षे अतिकायमिति कंचिदसुरम् । ५ महाकुक्षिम् । पक्षे महोदर मिति राक्षसम् । ६ उत्कटकामम्, पक्षे उत्कटजलदर्पम् ।