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आदिपुराणम्
उत्पत्तिर्भूभृतां पत्युर्धरण्यां वर्धिता सती । वार्धिरेव पतिस्तस्मादेषाऽभूत् पापनाशिनी ॥ १६६ ॥ घवला धार्मिकैर्मान्या सतीनामुपमानताम् । गता कवीश्वरैः सर्वैः स्तूयते देवतेति च ॥१६७॥ गुणिनश्चेन्न के "नान्धाः संस्तुवन्ति गुणप्रियाः । " इति गङ्गागतैः श्रन्यैरन्यैश्चातिमनोहरैः ॥ १६८ ॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणैः कुरुजाङ्गलम् । प्राप्य तद्वर्णनाव्याजान्मोदयन् काशिपात्मजाम् ॥१६९॥ आप्तजानपदानीतफलपुष्पादिभिश्च सः । विकसन्नीलनीरेजस रोजातिविराजितैः ॥ १७० ॥ प्रत्येत्येव प्रपश्यन्तीं सरोनेत्रैर्वधूवरम् । सद्वप्रजघनाभोगां वापीकूपोरुनाभिकाम् ॥ १७१ ॥ परीत जातरूपोच्चप्राकारकंटिसूत्रिकासु । अलंकृतमहावीथिविलसद्वाहु बल्लरीम् ॥ १७२॥ सौधोत्तङ्गकुचां भास्वद्गोपुराननशोभिनीम् । कुङ्कुमागुरुकर्पूरकर्दमार्दितगात्रिकाम् ॥ १७३॥ नानाप्रसवसन्दृब्धमाला धमिल्लधारिणीम् । तोरणाबद्ध रत्नादिमालालंकृतविग्रहाम् ॥१७४॥ आह्वयन्तीमिवोर्ध्वाधः पतत्त्वग्रहस्तकैः । द्वारासंवृतिविश्रम्भनेत्रां'' वासान्तरुत्सुकाम् ॥ १७५ ॥ पुरोहितैः २ पुरन्ध्रीभिर्मन्त्रिभिर्वैश्यविश्रुतैः । दत्तशेषः पुरः स्थित्वा साशीर्वादैः समुत्सुकैः ॥१७६॥
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रतिकी इच्छा नहीं होती है, उत्तम पुरुषोंकी इच्छाएँ नीच पदार्थोंपर नहीं होती हैं, यह नदी समुद्र में जाकर समुद्ररूप ही हो गयो है सो ठोक ही है क्योंकि प्रेम ऐसा ही होता है, इसके समागमसे ही समुद्रका लावण्य ( सौन्दर्य अथवा खारापन ) सदा सफल होता है ॥ १६५ ॥ इस गंगा नदीकी उत्पत्ति पर्वतों के पति हिमवान् पर्वत से है, पृथिवीपर यह बढ़ी है और समुद्र ही 1. इसका पति है इसलिए ही यह संसार में पापों का नाश करनेवाली हुई है || १६६ || यह सफेद हैं, धर्मात्मा लोंगों के द्वारा मान्य है, सतियोंको इसकी उपमा दी जाती है और सब कवीश्वर यदि गुणीजनों की स्तुति न करें तो फिर कौन किसकी स्तुति करेगा ? इस प्रकार सुननेके योग्य गंगा सम्बन्धी तथा अन्य अत्यन्त मनोहर कथाओं द्वारा मार्ग तय किया ।। १६७ - १६८ ॥ तदनन्तर कुछ ही पड़ावों द्वारा कुरुजांगल देश पहुँचकर उसके वर्णन के बहानेसे सुलोचनाको आनन्दित करते हुए जयकुमारने अपनी उस हस्तिनागपुरी नामकी राजधानीमें प्रवेश किया जो कि देशके प्रधान प्रधान पुरुषों द्वारा लाये हुए फल - पुष्प आदिकी भेंट तथा खिले हुए नील कमल और सफेद कमलोंसे अत्यन्त सुशोभित सरोवररूपी नेत्रोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो आगे आकर वधू वरको देख ही रही हो । उत्तम धूलोसाल ही जिसका विस्तृत जघन प्रदेश था, बावड़ी और कुएँ ही जिसकी विशाल नाभि थी, चारों ओर खड़ा हुआ सुवर्णका ऊँचा परकोटा ही जिसकी करधनी थी, सजी हुई बड़ी-बड़ी गलियाँ ही जिसकी सुशोभित बाहुलताएँ थीं, राजभवन ही जिसके ऊंचे कुच थे, देदीप्यमान गोपुररूपी मुखसे जो सुशोभित हो रही थी, केशर, अगुरु और कपूरके विलेपनसे जिसका शरीर गीला हो रहा था, जो अनेक प्रकारके फूलोंसे गुँथी हुई मालारूपी केशपाशको धारण कर रही थी, तोरणों में बाँधी गयी रत्न आदिकी मालाओंसे जिसका शरीर सुशोभित हो रहा था, जो ऊपर नीचे उड़ती हुई पताकाओं के अग्रभागरूपी हाथोंसे बुलाती हुई-सी जान पड़ती थी, खुले हुए दरवाजे ही जिसके विश्वासपूर्ण नेत्र थे, जो घरघर होनेवाले उत्सवोंसे उत्कण्ठित-सी जान पड़ती थी और इस प्रकार जो दूसरी सुलोचनाके समान सुशोभित हो रही थी । महाराजके दर्शन करनेके लिए उत्कण्ठित हो आशीर्वाद देने
१ हिमवगिरेः । २ प्रशस्ता । ३ गुणवज्जनान् । ४ अनन्धाः । कान्त्रा अ०, प०, इ०, स०, ल० । ५ इति गङ्गागतैरित्यनेन सह कमनीयैरतिप्रतिमालापैरिति संबन्धः । ६ सुलोचनाम् । ७ संप्राप्तजनपदजनानीत । ८ अभिमुखमागत्य । ९ प्रशस्तधूलिकुट्टिमघनविस्ताराम् । १० कवाटपिधानरहितद्वारनयनामित्यर्थः । ११ गृहमध्ये सोत्सवान् । १२ कुटुम्बिनीभिः ।