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आदिपुराणम्
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सतां सत्फलसंप्राप्त्यै विहरन् स्वगणैः समम् । चतुर्दशदिनोपेतसहस्राब्दीनपूर्वकम् ॥ ३२२ ॥ लक्षं कैलासमासाद्य श्रीसिद्ध शिखरान्तरे । पौर्णमासीदिने पौषे' निरिच्छः समुपाविशत् ॥ ३२३॥ तदा भरतराजेन्द्रो महामन्दरभूधरम् । आप्राग्भारं व्यलोकिष्ट स्वप्ने दैर्येण संस्थितम् ॥ ३२४ ॥ दैव युवराजोऽपि स्वर्गादेत्य महौषधिः । द्रुमश्छित्वा नृणां जन्मरोगं स्वर्यान्तमैक्षत ॥ ३२५ ॥ कल्पद्रुममभीष्टार्थं दत्वा नृभ्यो निरन्तरम् । गृहेट् निशामयामास स्वर्गप्राप्तिसमुद्यतम् ॥ ३२६॥ aati नारत्नकदम्बकम् । प्रादायाभ्रगमोयुक्तमद्राक्षीत् सचिवाग्रिमः ॥ ३२७॥ वज्रपञ्जरमुद्भिद्य कैलासं गजवैरिणम् । उल्लङ्घयितुमुद्यन्तं सेनापतिमपश्यत ॥३२८॥ आलुलो बुधो ऽनन्तवीर्यः श्रीमान् जयात्मजः । यान्तं त्रैलोक्यमामास्य सतारं तारकेश्वरम् ॥ ३२९ ॥ यशस्वतीसुनन्दाभ्यां सार्द्धं शक्रमनःप्रिया । शोचन्तीश्चिरमद्राक्षीत् सुभद्रा स्वप्नगोचरा ॥३३० ॥ वाराणसीपतिश्चित्राङ्गदोऽप्यालोकताकुलः । खमुत्पतन्तं भास्वन्तं प्रकाश्य धरणीतलम् ॥ ३३१॥ एवमालोकितस्वप्ना राजराजपुरस्सराः । पुरोधसं फलं तेषामपृच्छन्नर्यमोदये ॥ ३३२ ॥ कर्माणि हत्वा निर्मूलं मुनिभिर्बहुभिः समम् । पुरोः सर्वेऽपि शंसन्ति स्वप्नाः स्वर्गाग्रगामिताम् ॥ ३३३॥ इति स्वप्नफलं तेषां भाषमाणे पुरोहिते । तदैवानन्दनामैत्य भर्त्तुः" स्थितिमवेदयत् ॥ ३३४॥ ध्वनौ भगवता दिव्ये संहृते मुकुलीभवत् । कराम्बुजा सभा जाता पूष्णीव" सरसीत्यसौ ॥३३५॥ द्वारा खूब ही सींचा ॥। ३२१|| इस प्रकार सज्जनोंको मोक्षरूपी उत्तम फलकी प्राप्ति करानेके लिए भगवान् ने अपने गणधरोंके साथ-साथ एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व विहार किया । और जब आयुके चौदह दिन बाकी रह गये तब योगोंका विरोध कर पौष मासकी पौर्णमासीके दिन श्रीशिखर ओर सिद्धशिखर के बीच में कैलास पर्वतपर जा विराजमान हुए ।। ३२२ - ३२३ ।। उसी दिन महाराज भरतने स्वप्न में देखा कि महामेरु पर्वत अपनी लम्बाईसे सिद्ध क्षेत्र तक पहुँच गया है || ३२४ | | उसी दिन युवराज अर्ककीर्तिने भी स्वप्न में देखा कि एक महौषधिका वृक्ष मनुष्योंके जन्मरूपी रोगको नष्ट कर फिर स्वर्गको जा रहा है || ३२५ ॥ उसी दिन गृहपतिने देखा कि एक कल्पवृक्ष निरन्तर लोगोंके लिए उनकी इच्छानुसार अभीष्ट फल देकर अब स्वर्ग जानेके लिए तैयार हुआ है ।। ३२६ || प्रधानमन्त्रीने देखा कि एक रत्न - द्वीप, ग्रहण करनेकी इच्छा करनेवाले लोगोंको अनेक रत्नोंका समूह देकर अब आकाशमें जानेके लिए उद्यत हुआ है || ३२७|| सेनापतिने देखा कि एक सिंह वज्रके पिंजड़े को तोड़कर कैलास पर्वतको उल्लंघन करनेके लिए तैयार हुआ है || ३२८ || जयकुमारके विद्वान् पुत्र श्रीमान् अनन्तवीर्यंने देखा कि चन्द्रमा तीनों लोकोंको प्रकाशित कर ताराओं सहित जा रहा है || ३२९ || सोती हुईं सुभद्राने देखा कि यशस्वती और सुनन्दाके साथ बैठी हुई इन्द्राणी बहुत देर तक शोक कर रही है ||३३०|| बनारस के राजा चित्रांगदने घबड़ाहट के साथ यह स्वप्न देखा कि सूर्य पृथिवीतलको प्रकाशित कर आकाशकी ओर उड़ा जा रहा है ।। ३३१ || इस प्रकार भरतको आदि लेकर सब लोगोंने स्वप्न देखे और सूर्योदय होते ही सबने पुरोहितसे उनका फल पूछा ॥ ३३२ ॥ पुरोहितने कहा कि ये सभी स्वप्न कर्मोंको बिलकुल नष्ट कर भगवान् वृषभदेवका अनेक मुनियोंके साथ-साथ मोक्ष जाना सूचित कर रहे हैं ||३३३|| इस प्रकार पुरोहित उन सबके लिए स्वप्न का फल कह ही रहा था कि इतनेमें ही आनन्द नामका एक मनुष्य आकर भगवान्का सब हाल कहने लगा ॥ ३३४ ॥ उसने कहा कि भगवान्ने अपनी दिव्यध्वनिका
१ पुष्यमासे । २ पूर्व सिद्धक्षेत्रपर्यन्तम् । ३ अर्ककीर्तिः । ४ स्वर्गं गतम् । ५ गृहपतिरत्नम् । ६ ददर्श । ७ गृहीतुमिच्छुभ्यः । ८ बुद्धिमान् । ९ तारकासहितम् । १० स्त्रीरत्नम् । ११ एवं विलोकित-ल० । १२ सूर्योदये । १३ मोक्षगामित्वम् । १४ भरतादीनाम् । १५ पुरो: । १६ सूर्ये । इत्यसाववेदयदिति संबन्धः ।