Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 530
________________ आदिपुराणम् भव्यस्यापि भवोऽभवद् भवगतः कालादिलब्धेर्विना कालोऽनादिरचिन्त्यदुःखनिचितो धिक धिक स्थिति संसृतेः । इत्येतद्विदुषाऽत्र शोच्यमथवा नैतच्च यहेहिनां ___भव्यत्वं बहुधा महीश सहजा वस्तुस्थितिस्तादृशी ॥३८६॥ उपजाति गतानि संबन्धशतानि जन्तोरनन्तकालं परिवर्तनेन "नावेहि किं त्वं हि विबुद्धविश्वो वृथैव मुह्येः "किमिहेतरो वा ॥३८७॥ अनुष्टुप् कर्मभिः कृतमस्यापि न स्थास्नु त्रिजगत्पतेः । शरीरादि ततस्त्याज्यं मन्वते तन्मनीषिणः ॥३८॥ प्रागभिगोचरः संप्रत्येष चेतसि वर्तते । भगवांस्तत्र कः शोकः पश्यैनं तत्र सर्वदा ॥३८॥ मालिनी इति मनसि यथार्थ चिन्तयन् शोकवहिं शमय विमलबोधाम्भोमिरित्यावभाषे। गणभृदथ स चक्री दावदग्धो महीध्रो नवजलदजलैर्वा तद्वचोभिः प्रशान्तः ॥३९०॥ वसन्ततिलका चिन्ता व्यपास्य गुरुशोककृतां गणेश मानम्य नम्रमुकुटो निकटात्मबोधिः । निन्दनितान्तनितरां निजमोगतृष्णां मोक्षोष्णकः स्वनगरं ब्यविशद् विभूत्या ॥३६॥ अभव्यकी तरह दुःखी, निर्धन, कुमार्ग में प्रवृत्ति करनेवाला और रोगोंसे भयभीत होता हुआ इस संसाररूपी वनमें भ्रमण करता रहता है ॥३८॥ काल आदि लब्धियोंके बिना पूज्य भव्य जीवको भी संसारमें रहना पड़ता है, यह काल अनादि है तथा अचिन्त्य दुःखोंसे भरा हआ है इसलिए संसारकी इस स्थितिको बार-बार धिक्कार हो, यही सब समझ विद्वान् पुरुषको इस संसारमें शोक नहीं करना चाहिए अथवा जीवोंका यह भव्यत्वपना भी अनेक प्रकारका होता है। हे राजन्, वस्तुका सहज स्वभाव ही ऐसा है ॥३८६॥ हे भरत, तू तो संसारका स्वरूप जाननेवाला है, क्या तू यह नहीं जानता कि अनन्त कालसे परिवर्तन करते रहनेके कारण इस जीवके सैकड़ों सम्बन्ध हो चुके हैं ? फिर क्यों अज्ञानीकी तरह व्यर्थ ही मोहित होता है ॥३८७॥ तीनों लोकोंके अधिपति भगवान वषभदेवका शरीर भी तो कर्मोके द्वारा किया हुआ है इसलिए वह भी स्थायी नहीं है और इसलिए ही विद्वान् लोग उसे हेय समझते हैं ॥३८८॥ जो भगवान् पहले आँखोंसे दिखायी देते थे वे अब हृदयमें विद्यमान हैं इसलिए इसमें शोक करनेकी क्या बात है ? तू उन्हें अपने चित्तमें सदा देखता रह ॥३८९॥ इस प्रकार मनमें वस्तुके यथार्थ स्वरूपका चिन्तवन करता हआ तू निर्मल ज्ञानरूपी जलसे शोकरूपी अग्नि शान्त कर, ऐसा गणधर वृषभसेनने कहा तब चक्रवर्ती भी जिस प्रकार दावानलसे जला हआ पर्वत नवीन बादलोंके जलसे शान्त हो जाता है उसी प्रकार उनके वचनोंसे शान्त हो गया ॥३९०॥ जिसे आत्मज्ञान शीघ्र होनेवाला है और जिसका मुकुट नम्रभूत हो रहा है ऐसे भरतने पिताके शोकसे उत्पन्न हई चिन्ता छोडकर गणधरदेवको नमस्कार किया और अत्यन्त बढ़ी हुई अपनी भोगविषयक तृष्णाकी निन्दा करते हए तथा मोक्षके लिए शीघ्रता करते हए उसने बड़े वैभवके साथ अपने नगरमें प्रवेश किया ॥३९॥ १ संसारानुगतः । २ संसारे । ३ शोकविषयम् । ४ अन्य अज्ञ इवेत्यर्थः । ५ चेतसि । ६ मुक्त्युद्योगे दक्षः । 'दक्षे तु चतुरपेशलपटवः । सूत्थान उष्णश्च' इत्यभिधानात् शीघ्र कारी वर्गः । मोक्षोत्सुकः ल० ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566