Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 533
________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व वसन्ततिलका साक्षात्कृतप्रथितसप्तपदार्थसार्थः सद्धर्मतीर्थपथपालनमूलहेतुः । भन्यात्मनां भवभृतां स्वपरार्थसिद्धि मिक्ष्वाकुवंशवृषभो वृषभो विदध्यात् ॥४०२॥ शार्दूलविक्रीडितम् यो नाभेस्तनयोऽपि विश्वविदुषां पूज्यः स्वयम्भूरिति त्यक्ताशेषपरिग्रहोऽपि सुधियां स्वामीति यः शब्द्यते । मध्यस्थोऽपि विनेयसत्त्वसमितेरेवोपकारी मतो निर्दानोऽपि बुधैरपास्य चरणो यः सोऽस्तु वः शान्तये ॥४०३॥ इत्यारे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह प्रथमतीर्थ करचक्रधरपुराणं नाम सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व परिसमाप्तम् ॥४७॥ की विधि और मोक्षका महान् मार्ग प्रत्यक्ष देखा था, जिन्हें आवरणसे रहित पूर्ण अन्तिम - केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और जो समस्त पृथिवीके अधिपति भरत चक्रवर्ती के पिता थे वे श्रीमान् प्रथम तीथकर तम सबको लक्ष्मी प्रदान करें ॥४०॥ जिन्होंने प्रसिद्ध सप्त पदार्थों के सम को प्रत्यक्ष देखा है और जो समीचीन धर्मरूपी तीर्थके मार्गकी रक्षा करने में मुख्य हेतु हैं ऐसे - इक्ष्वाकु वंशके प्रमुख श्री वृषभनाथ भगवान् संसारी भव्य प्राणियोंको मोक्षरूपी आत्माको उत्कृष्ट सिद्धिको प्रदान करें ॥४०२॥ नाभिराजके पुत्र होकर भी स्वयंभू हैं अर्थात् अपने आप उत्पन्न हैं, समस्त विद्वानोंके पूज्य हैं, समस्त परिग्रहका त्याग कर चुके हैं फिर भी विद्वानोंके स्वामी कहे जाते हैं, मध्यस्थ होकर भी भव्यजीवोंके समूहका उपकार करनेवाले हैं और दानरहित होनेपर भी विद्वानोंके द्वारा जिनके चरणोंकी सेवा की जाती है ऐसे भगवान् वृषभदेव तुम सबकी शान्तिके लिए हों अर्थात् तुम्हें शान्ति प्रदान करनेवाले हों ॥४०३॥ इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवान् गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्रीआदिपुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्तीका वर्णन करनेवाला यह सैंतालीसवाँ पर्व पूर्ण हुआ। पुराणधिरगम्योऽयमर्थवीचिविभूषितः । सर्वथा शरणं मन्ये जिनसेनं महाकविम् ॥ पारग्रामों जन्मभूमिर्यदीया । गल्लीलालो जन्मदाता यदीयः । पनालालः क्षुद्रबुद्धिः स चाहं टीकामेतां स्वल्पबुद्धया चकार ॥ आषाढकृष्णपक्षस्य त्रयोदश्यां तिथावियम् । पञ्चसप्तचतुर्युग्मवर्षे पूर्णा बभूव सा॥ ते ते जयन्तु विद्वांसो वन्दनीयगुणाधराः । यत्कृपाकोणमालम्ब्य तीर्णोऽयं शास्त्रसागरः ॥ १ स्वपरार्थज्ञानं सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः । २ श्रेष्ठः ।

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