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आदिपुराणम्
गर्मान्वय क्रिया- एक विशेष सर्पिणी युगमें बारह-बारह जातिब्राह्मण- तप और श्रुतसे
प्रकारको क्रिया, इसके ५३ . होते हैं। भरतक्षेत्रका पहला रहित नाम मात्रके ब्राह्मण भेद होते हैं । ३८१५१
चक्रवर्ती भरत था जो कि . जातिब्राह्मण है ३८।४५ गार्हपत्य- जिस अग्निसे तीर्थंकर प्रथम तीर्थकर वृषभदेवका जिनरूपता- गर्भावय क्रियाका के मृत शरीरका दाह पुत्र था २६।१
एक भेद ३८५७ संस्कार होता है वह अग्नि चक्रलाभ- गर्भान्वय क्रियाका जीव- जानने देखने की शक्तिसे ४०१८४ एक भेद ३८।६१
युक्त जीव द्रव्य ३४।१९२ गुप्तित्रयी-१ मनोगुप्ति, २ वचन- चकामिषेक- गर्भान्वय क्रियाका ज्ञातृधर्मकथा- द्वादशाङ्गका
गुप्ति, ३ कायगुप्ति ३६। एक भेद ३८।६२ .. छठवाँ भेद ३४।१४० १३८
चतुर्गति- नरक, तिर्यंच, मनुष्य गुरुपूजोपलम्भन- गर्भान्वय और देव ये चार गतियाँ तक्षन्- चक्रवर्तीका एक सचेतन क्रियाका एक भेद ३८।६१ हैं । ४२।९३
रत्त ३७१८४ गुरुस्थानाभ्युपगम- गर्भान्वय
चतुर्दश महाविद्या- उत्पादपूर्व तद्विहार-गर्भान्वय क्रियाका एक क्रियाका एक भेद ३८१५८ आदि चौदह पूर्व ३४।१४७
भेद ३८।६२ गृहत्याग- गर्भावय क्रियाका
तप- इच्छाका निरोध करना तप चतुर्मुखमह- पूजाका एक भेद, एक भेद ३८।५७
है। इसके बारह भेद है
महामुकुटबद्ध राजाओंके गृहपति- चक्रवर्तीका एक सचे
द्वारा यह की जाती है।
१ अनशन, २ ऊनोदर, ३ तन रत्न ३७१८४
वृत्ति परिसंख्यान, ४ रस
इसका दूसरा नाम सर्वतोगृहिमूलगुणाष्टक-गृहस्थके आठ
परित्याग, ५ विविक्तभद्र है ३८।२६ मूलगुण-१ मद्यत्याग, २
शय्यासन, ६ कायक्लेश, ७ चतुर्भेद ज्ञान- मतिज्ञान, श्रुतमांसत्याग, ३ मधुत्याग, ज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय
प्रायश्चित्त,८ विनय,९ वैया४ अहिंसाणुव्रत, ५.सत्याणु
वृत्य, १० स्वाध्याय, ११ ज्ञान ३६।१४५ व्रत, ६ अचौर्याणुव्रत, ७
व्युत्सर्ग और १२ ध्यान ब्रह्मचर्याणुव्रत और ८ परिचमूपति- सेनापति, चक्रवर्तीका
३८।४१ ग्रहपरिमाणाणुव्रत ४६।
एक सजीव रत्न ३७१८४
तप ऋद्धि- इसके उग्रोग्रतप, चर्म- चक्रवर्तीका एक निर्जीव २६९
दीप्ततप, घोरतप आदि गृहीशिता- गर्भान्वय क्रियाका
रत्न ३७१८४
अनेक भेद है ३६।१४९चर्या- मन्त्र, देवता, औषध एक भेद ३८।५७
१५१ तथा आहार आदिके लिए
तीर्थ- तीर्थकरका प्रवृत्तिकाल
हिंसा नहीं करूँगा ऐसी घातिकर्म- ज्ञानावरण, दर्शना
३४।१४२ वरण, मोहनीय और अन्त
प्रतिज्ञा धारण करना ३९।
तीर्थकृद्भावना-गर्भावय क्रिया
१४५-१४७ राय ये चार घातियाकर्म
का एक भेद ३८।५७ कहलाते हैं । ३३।१३० चातुराश्रम्य- ब्रह्मचर्य, गृहस्था
तिथ्यादिपञ्च-तिथि, ग्रह, नक्षत्र, श्रम, वानप्रस्थ और संन्यास
योग और करण ४५।१७९
ये चार आश्रम हैं। ३९:२४ चक्रधर- चक्रवर्ती भरत । भरत,
त्याग- विकार भावोंको छोड़ना ऐरावत और विदेह क्षेत्रमें चार आराधना- १ सम्यग्दर्शन,
३६।१५७ चक्रवर्ती होते हैं। ये षट्
२ सम्यग्ज्ञान, ३ सम्यक् . अस-चलने-फिरनेवाले जीव खण्ड भूमण्डलके स्वामी
चारित्र और सम्यक् तप ये द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिहोते हैं। इन्हें देवोपनीत
चार आराधना है ४७१४०० न्द्रिय, पंचेन्द्रिय ३४।१९४ चक्ररत्न प्राप्त होता है।
त्रिगौरव- १रस गौरव, २ शब्दये दश कोडाकोड़ी सागरके जाति- माताकी. अन्वय शुद्धि गौरव, ३ ऋद्धिगौरव, अवसर्पिणी तथा उत्- ३९।८५
गौरव = अहंकार ३६।१३७