Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 537
________________ आहस्य- गर्भान्त्रय क्रियाका एक भेद ३८|६२ आहवनीय वह अग्नि जिसमे गणधरोंका अन्तिम संस्कार होता है ४० ८४ आष्टाद्विक पूजाका एक भेद । कार्तिक, फाल्गुन ओर आषाढ़ मास के अन्तिम आठ दिनोंमें नन्दीश्वर द्वीप सम्बन्धी ५२ चैत्यालयोंकी पूजा ३८।२६ इ इज्या पूजा, पूजाके चार भेद हैं १ सदाचन ( नित्यमह ), २ चतुर्मुखम ३ कल्पद्रुममह और ४ आष्टाह्निकमह ३८।२६ इन्द्रत्याग गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८|६० इन्द्रोपपाद - गर्भावय क्रियाका एक भेद ३८।६० इम चक्रवर्तीका एक सचेतन रत्न- हाथी ३७१८४ उ उत्तमक्षमा - क्रोधपर विजय प्राप्त करना ३६।१५७ उत्तर गुण- मुनियोंके चौरासी लाख उत्तर गुण होते हैं ३६।१३५ उपधा- धर्म, अर्थ, काम और भयके समय किसी बहानेसे दूसरेके विसकी परीक्षा करना उपधा है । ४४।२२ उपनीति - गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५६ उपयोगिता - दीक्षाग्यय क्रियाका एक भेद ३८।६४ उपासकाध्याय सातवाँ भेद जिसमें श्रावकाचारका वर्णन है ३४१४१ ऋतु- स्त्रीकी रजः शुद्धिके दिन पारिभाषिक शब्द सूची से लेकर पन्द्रह दिन तकका काल ऋतुकाल कहलाता है । ३८।१३४ ऋद्धि- तपसे प्रकट हुई विशिष्ट शक्तियाँ। ये बुद्धि, त्रिक्रिया आदिके भेदसे अनेक प्रकारकी होती है ३६ । १४४ ऐ ऐन्द्रध्वज - इन्द्रोंके द्वारा की हुई पूजा । पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा की पूजा इन्द्रध्वज पूजा है। इसमें मनुष्य में इन्द्रका आरोप कर उसके द्वारा पूजा की जाती है । भ औषधद्वि- इसके अनेक भेद हैं। आमर्ष, दवेल, जल्ल, मल्ल आदि ३६।१५३ क कर्मचक्र- ज्ञानावरणादि कमौका समूह ४३।२ कमंत्रय - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय ४७।२४७ कर्त्रन्वय किया- एक विशिष्ट क्रिया, इसके ७ भेद है ३८।५१ कल्पद्रुम जिनपूजाका एक भेद । इसे चक्रवर्ती ही कर पाता है । ३८।२६ कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं ३६।१३९ काकिणी - चक्रवर्तीका एक रत्न जिससे दीवालपर लिखनेसे प्रकाश उत्पन्न होता है, ३२।१५ कारुण्य - दुःखी जीवोंका दुःख दूर करने का भाव होन ३९ १४५ काल- चक्रवर्तीकी एक निषि ३७/७३ ५१९ कुल- पिताकी वंशशुद्धि ३९१८५ कुल चर्या - गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५७ कृतयुग - चतुर्थकाल ४१५ केशवाप - गर्भाश्वय क्रियाका एक भेद ३८०५६ केवलाख्य ज्योति - केवलज्ञानरूपी ज्योति ३३।१३२ कोष्टबुद्धि बुद्धिऋद्धिका एक भेद ३६१६ 1 क्षपकश्रेणी- चारित्र मोहका क्षय करनेके लिए परिणामोंकी विशुद्धता यह विशुद्धता आठवेसे दसवें गुणस्थान तक रहती है ४७।२४६ क्षयोपशम- पातिया कर्मों की एक अवस्था विशेष, जिसमें वर्तमान कालमें उदय आनेबाले सर्वधाति स्पर्द्धकका उदयाभावी क्षय आगामी कालमें उदय आनेवाले सर्वपाति स्पर्धकोंका सदयस्था रूप उपशम और देशपाति स्पर्द्धकोंका उदय रहता है ३६।१४५ क्रव्याद - मांस खानेवाले व्यक्ति ३९।१३७ ग गण- समवसरणकी १२ सभाएँ ३३।१५७ गणग्रह- दीक्षान्वय क्रियाका एक भेद ३८।६४ गणग्रह - मिथ्या देवी-देवताओंको अपने घर से अन्यत्र विसर्जित करना, ३९।४५ गणोपग्रहण - गर्भान्वय क्रियाको एक भेद ३८।५८ गन्धकुटी - समवसरणका वह मूलस्थान जहाँ भगवान् विराजमान रहते हैं ३३| १५०

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