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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
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सुगन्धिसलिलं गाङ्गं' गम्भीरमधुरं ' ध्वनन् । अम्मोधरो नभोभागादासन्नादवमुञ्चति ॥३६॥ कल्पद्रुमद्वयं वस्त्रभूषणानि प्रयच्छति । अन्नमानं ददात्यन्यद् द्वयं कल्पमहीरुहः ॥ ३७ ॥ एवमन्यच्च भोगाङ्गमशेषं देवनिर्मितम् । शश्वनिर्विशतस्तस्य पूर्णं प्राथमिकं वयः ॥ ३८ ॥ तद्वीक्ष्य पितरावेष' किमेकामभिलाषुकः । किं बह्वीरिति चित्तेन संदिहानौ समाकुलौ ॥३६॥ प्रिय समाहूय तत्प्रश्नासन्मनोगतम् । "अवादीधरतां मैत्री सैव या वेकचित्तता ॥४०॥ ततः समुद्रदत्ताख्यो धनवत्या' सहाभवत् । स्वसा " कुबेरभित्रस्य तन्नामैवैतयोः " सुता ॥ ४१ ॥ प्रियदत्ताह्वया तस्याश्चेटिका रतिकारिणी । कन्यकास्तां विधायादि द्वात्रिंशत्सुन्दराकृतीः ॥४२॥ arrot nainager यक्षपूजाविधौ सुधीः । सुपरीक्ष्य निमित्तेन प्रियदत्तां गुणान्विताम् ॥४३॥ अवधार्यास्य पुत्रस्य पञ्चताराबलान्विते । दिने महाविभूत्यैनां' ' कल्याणविधिनाऽग्रहीत् ॥४४॥ तन्निमित्तपरीक्षायामवलोकितुमागते । सुते गुणवती राज्ञो ं यशस्वत्यभिधा परा ॥४५॥ भाजनं भक्ष्य संपूर्णमदत्तवति" माकुले२२ (१) स्वाभ्यां लज्जामरानम्रवदने जातनिर्विदे
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समय समीपवर्ती आकाशसे आकर मधुर तथा गम्भीर गर्जना करते हुए मेघ सब प्रकारके रोग, पसीना और मलको हरण करनेवाला गंगा नदीका सुगन्धित जल बरसाते थे ।। ३५-३६ ॥ उस कुमार के लिए एक कल्पवृक्ष वस्त्र देता था, एक आभूषण देता था, एक अन्न देता था और एक पेय पदार्थ देता था ।। ३७ ।। इस प्रकार इनके सिवाय देवोंके दिये हुए और भी सब प्रकार - के भोगोंका निरन्तर उपभोग करते हुए उस कुमारकी पहली अवस्था पूर्ण हुई थी ॥ ३८ ॥ पहली अवस्थाको पूर्ण हुआ देखकर माता-पिताको चिन्ता हुई कि यह एक कन्या चाहता है अथवा बहुत । उसी चिन्तासे वे कुछ सन्देह कर रहे थे और कुछ व्याकुल भी हो रहे । उन्होंने कुबेरकान्तके मित्र प्रियसेनको बुलाकर उसके मनकी बात पूछी और उसके कहनेपर उन्होंने निश्चय कर लिया कि इसके 'एक पत्नीव्रत है' - यह एक ही कन्या चाहता है, सो ठीक ही है क्योंकि दोनों का एक चित्त हो जाना ही मित्रता कहलाती है ।। ३६-४० ।।
तदनन्तर - उसी नगर में समुद्रदत्त नामका एक सेठ था, जो कि कुबेरमित्रकी स्त्री धनवतीका भाई था और उसे कुबेरमित्रकी बहन कुबेर मित्रा ब्याही गयी थी । इन दोनोंके प्रियदत्ता नामकी एक पुत्री हुई थी और रतिकारिणी उसकी दासी थी । समुद्रदत्त सेठके प्रियदत्ता आदि बत्तीस कन्याएँ थीं । किसी एक दिन उस बुद्धिमान् सेठने एक बागमें यक्षकी पूजा करते समय सुन्दर आकारवाली उन बत्तीसों कन्याओंकी निमित्तवश परीक्षा की और उन सबमें प्रियदत्ताको हो गुणयुक्त समझा। फिर सूर्य, चन्द्र, गुरु, शुक्र और मंगल इन पाँचों ताराओंके बलसे सहित किसी शुभ दिनमें बड़े वैभव के साथ कल्याण करनेवाली विधिसे उस प्रियदत्ताको अपने पुत्र के लिए स्वीकार किया ।। ४१-४४ ॥ राजा प्रजापालकी गुणवती यशस्वती नामकी
१ गङ्गासंबन्धि | २ गम्भीरं मधुरं ब०, अ०, प०, स०, इ०, ल० । ३ कल्पवृक्षस्य । ४ अनुभवतः । ५ जननीजनको । ६ एतामित्यपि पाठः । स्त्रियम् । ७ सन्देहं कुर्वन्ती । ८ कुबेरकान्तस्य मित्रम् | । ९ कुबेरकान्तस्याभिप्रायम् । १० एकपत्नीव्रतधारणमित्यवधारितवन्तौ । ११ कुबेर मित्रस्य भार्यया धनवत्या सहोत्पन्न इत्यर्थः । १२ भगिनी । १३ कुबेरमित्राह्वया । १४ समुद्रदत्त कुबेर मित्रयोः । १५ सखी । १६ द्वाविंशभाजनेषु विविधभक्ष्यपायसघृतं पूरयित्वा एकस्मिन् भाजने अनर्घ्यं रत्नं निक्षिप्य यक्षाग्रे संस्थाप्य द्वात्रिंशत्कन्यकानामेकैकस्य एकैकं भाजनं दत्तं यस्या हस्ते अनर्घ्यं रत्नं समागतं सा मम पुत्रस्य प्रियेति सुपरीक्ष्य । १७ तिथ्यादिपञ्चनक्षत्रबलान्विते । १८ प्रियदत्ताम् । १९ प्रजापालनृपस्य । २० भक्ष - ल०, ब०, इ०, प०, अ०, स० । २१ अति सति । २२ मातुले अ०, प०, म०, इ०, ल०, ८० । निज मामे श्रेष्ठिनि । २३ आत्मभ्याम् । २४ उत्पन्नवैराग्ये ।
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