Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 480
________________ ४६२ आदिपुराणम् मनोरथस्य पुत्राय कन्या चित्ररथाय सा । इत्याहुः सोऽप्यनुज्ञाय कृत्वा बन्धुविसर्जनम् ॥१८॥ *हिरण्यवर्मणः सर्वखगराजाभिषेचनम् । विधाय बहुभिः साधं संप्राप्य मुनिपुङ्गवम् ॥२॥ संयम प्रतिपन्नः सन् सहवायुरथः स्वयम् । तपो द्वादशधा प्रोक्तं यथाविधि समाचरत् ।। १८३॥ इत्युक्त्वा रतिवेगाऽहं रतिषेणा प्रभावती । चाहमवेति सभ्यानां निजगाद सुलोचना ॥१८॥ सदाकार्य जयोऽप्याह पतिस्तासामहं क्रमात् । जाये स्म' तत्र तत्रेति विश्वविस्मयकृद्वचः ॥१५॥ पुनः प्रियां जयः प्राह प्रकृतं किंचिदप्यतः । अवशिष्टं तदप्युच्चस्त्वया कान्ते निगद्यताम् ॥१८६॥ इति पत्युः परिप्रश्नाइशनज्योत्स्नया सभाम् । मूर्तिः कुमुद्वतीं वेन्दोर्विकासमुपनीयताम् ॥ १८७॥ साऽब्रवीदिति तद्वृत्तं स्वपुण्यपरिपाकजम् । सुखं राज्यसमुदभूतं यथेष्टसपि निर्विशन्॥१८॥ परेद्युः कान्तया साई स्वेच्छया विहरन् वनम् । सरो धान्यकमालाख्यं वीक्ष्यादित्यगतेः सुतः॥ १८६॥ 'स्वप्राच्यभवसंबन्धं प्रत्यक्षमिव लक्षयन् । काललब्धिवलाल्लब्धनिवेदो विदुषां वरः ॥१९०॥ भङ्गरः"संगमः सर्वोऽप्यङ्गिनामभिवाञ्छितः । किं नाम सुखम बंदमल्पसंकल्पसंभवम् ॥ १६१॥ आयुर्वायुचलं कायो हेय एवामयालयः । साम्राज्यं भुज्यते' लोलैर्वालि' शैर्बहुदोषलम् ॥१६२॥ अदूरपार" कायोऽयमसारो दुरिताश्रयः। तादात्म्यप्रात्मनोऽनेन 'धिगेनमशुचिप्रियम् ॥१९३॥ प्रेमसे आदित्यगतिके समीप जाकर प्रार्थना की 'कि यह प्रभावतीकी पुत्री रतिप्रभा कन्या आप मेरे मनोरथके पुत्र चित्ररथके लिए दे दीजिए।' आदित्यगतिने भी स्वीकार कर समागत बन्धुओंको बिदा किया ॥१८०-१८१॥ महाराज आदित्यगति सव विद्याधरोंके राज्यपर हिरण्यवर्माका अभिषेक कर अनेक लोगोंके साथ किन्हीं मुनिराजके समीप पहुँचे, और वायुरथके साथ-साथ स्वयं भी संयम धारण कर विधिपूर्वक शास्त्रोंमें कहे हुए बारह प्रकारके तपश्चरण करने लगे ॥१८२-१८३॥ यह सब कहकर सुलोचनाने सब सभासदोंसे कहा कि वह रतिवेगा भी मैं ही हूँ, रतिषेणा ( कबूतरी ) भी मैं ही हूँ और प्रभावती भी मैं ही हूँ ॥१८४॥ यह सुनकर जयकुमारने भी सबको आश्चर्य करनेवाले वचन कहे कि उन तीनों भवोंमें अनुक्रमसे मैं ही उन रतिवेगा आदिका पति हुआ हूँ ॥१८५॥ जयकुमार फिर अपनी प्रिया सुलोचनासे कहने लगा कि हे प्रिये, कुछ बात बाकी और रह गयी है उसे भी तू अच्छी तरह कह दे ।।१८६॥ जिस प्रकार चन्द्रमाकी मूर्ति कुमुदिनीको विकसित कर देती है उसी प्रकार वह सुलोचना भी अपने पतिके पूर्वोक्त प्रश्नसे दाँतोंकी कान्तिके द्वारा सभाको विकसित-हर्षित करती हुई अपने पुण्यके फलसे होनेवाले समाचारोंको इस प्रकार कहने लगी कि वह हिरण्यवर्मा राज्यसे उत्पन्न हुए सुखका इच्छानुसार उपभोग करने लगा। किसी एक दिन अपनी वल्लभाके साथ विहार करता हुआ वह आदित्यगतिका पुत्र हिरण्यवर्मा धान्यकमाल नामके वनमें जा पहुँचा । वहाँ सर्पसरोवर देखकर उसे अपने पूर्वभवके सब सम्बन्ध प्रत्यक्षकी तरह दिखने लगे, काललब्धिके निमित्तसे जिसे वैराग्य उत्पन्न हुआ है और जो विद्वानोंमें श्रेष्ठ है ऐसा वह हिरण्यवर्मा सोचने लगा कि प्राणियोंकी इच्छाका विषयभूत यह सभी समागम क्षणभंगुर है, इस समागममें थोड़े-से संकल्पसे उत्पन्न हुआ यह सुख क्या वस्तु है ? यह आयुके समान चंचल है। अनेक रोगोंका घर स्वरूप यह शरीर छोड़ने योग्य ही है । अनेक दोषोंको देनेवाले राज्यको चंचल १ वायुरथस्थ वियोगादाहुः । २ तथास्त्वित्यनुमतिं कृत्वा । ३ अयं श्लोकः ल. 'म० पुस्तकयोर्न दृश्यते । ४ वायुरथेन सहितः । ५ आदित्यगतिः । ६ रविषेणेति कपोती। ७ सुलोचना। ८ सभाजनानाम् । ९ अभाषत । १० रतिवेगादीनाम् । ११ जातोऽस्मि । १२ अनुभवन् । १३ प्रभावत्या सह । १४ हिरण्यवर्मा । १५ पूर्वभव । १६ क्षयशीलः । १७ आसक्तैः । १८ मूर्खः । १९ बहुदोषप्रदम् । २० आसन्नावसाना' । २१ तत्स्वरूपत्वम् । २२ कायेन । २३ आत्मानम् ।

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