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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
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अपरीक्षितकार्याणामस्माकं क्षन्तुमर्हसि । इति तेषु भयग्रस्तमानतेषु नृपादिपु ॥३२६॥ अस्मदर्जितदुष्कर्मपरिपाकादभूदिदम् । विषादस्तत्र कर्तव्यो न भवद्भिरिति ध्रुवम् ॥३३०॥ वैमनस्यं निरस्यैषां श्रेष्ठी प्रष्टः क्षमावताम् । सर्वैः पुरस्कृतः पूज्यो विभूत्या प्राविशत् पुरम् ॥३३॥ एवं प्रयाति कालेऽस्य वारिषेणां सुतां नृपः । वसुपालाय पुत्राय स्वस्यादत्त विभूतिमत् ॥३३२॥ अथान्येद्यः सभामध्ये पृष्टवान् श्रेष्टिनं नृपः । विरुद्धं किं न वाऽन्योन्यं धर्मादीनि चतुष्टयम् ॥३३३॥ परस्परानुकूलास्ते सम्यग्दृष्टिषु साधुषु । न मिथ्यादृक्ष्विति प्राह श्रेष्ठी धर्मादितत्ववित् ॥३३४॥ इति तद्वचनाद् राजा तुष्टोऽभीष्टं त्वयोच्यताम् । दास्यामीत्याह सोऽप्याख्यज्जातिमृत्युक्षयाविति ॥३३५॥ न मया तवयं साध्यमिति प्रत्याह भूपतिः। मां मुञ्च साधयामीति तमवोचद्वणिग्वरः ॥३३६॥ तदाकर्ण्य गृहत्यागमहं च सह 'तेऽधुना । करोमि किन्तु मे पुत्रा बालका इति चिन्तयन् ॥३३७॥
सद्योभिन्नाण्डकोद्भूतान् मक्षिकादानतत्परान् । क्षुधापीडाहतान् वीक्ष्य सहसा गृहकोकिलान् ॥३३८॥ सर्वेऽपि जीवनोपाय जन्तवो जानतेतराम् । स्वेषां विनोपदेशेन तत्कि मे बलचिन्तया ॥३३९॥ इत्यसौ वसुपालाय दत्वा राज्यं यथाविधि । विधाय यौवराज्यं च श्रीपालस्य सपट्टकम् ॥३४०॥
से शीलवतके प्रभावका वर्णन कर उस सेठकी पूजा की ॥३२८|| जिनके मन भयसे उद्विग्न हो रहे हैं ऐसे राजा आदिने सेठसे कहा कि हम लोगोंने परीक्षा किये बिना ही कार्य किया है अतः आप हम सबको क्षमा कर दीजिए, ऐसा कहनेपर क्षमा धारण करनेवालोंमें श्रेष्ठ सेठने कहा कि यह सब हमारे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मके उदयसे ही हुआ है । निश्चयसे इस विषयमें आपको कुछ भी विषाद नहीं करना चाहिए ऐसा कहकर उसने सबका वैमनस्य दूर कर दिया। तदनन्तर सब लोगोंके द्वारा आगे किये हुए पूज्य सेठ-कुबेरप्रियने बड़ी विभूतिके साथ नगरमें प्रवेश किया ॥३२९-३३१॥ इस प्रकार समय व्यतीत होनेपर वैभवशाली राजाने वारिषेणा नामकी इसी सेठकी पुत्री अपने पुत्र वसुपालके लिए ग्रहण की ॥३३२॥ किसी अन्य दिन राजाने सभाके बीच सेठसे पूछा कि ये धर्म आदि चारों पुरुषार्थ परस्पर एक दूसरेके विरुद्ध हैं अथवा नहीं ? ॥३३३॥ तब धर्म आदिके तत्त्वको जाननेवाले सेठने कहा कि सम्यग्दृष्टि सज्जनोंके लिए तो ये चारों ही पुरुषार्थ परस्पर अनुकूल हैं परन्तु मिथ्यादृष्टियोंके लिए अनुकूल नहीं है ॥३३४॥ सेठके इन वचनोंसे राजा बहुत ही सन्तुष्ट हुआ, उसने सेठसे कहा कि 'जो तुम्हें इष्ट हो माँग लो मैं दूंगा' तब सेठने कहा कि मैं जन्म-मरणका क्षय चाहता हूँ ॥३३५।। इसके उत्तरमें राजाने कहा कि ये दोनों तो मेरे साध्य नहीं हैं तब वैश्यवर सेठने कहा कि अच्छा मुझे छोड़ दीजिए मैं स्वयं उन दोनोंको सिद्ध कर लूँगा ॥३३६॥ यह सुनकर राजाने कहा कि तेरे साथ मैं भी घर छोड़ता परन्तु मेरे पुत्र अभी बालक हैं - छोटे-छोटे हैं इस प्रकार राजा विचार कर ही रहा था कि ॥३३७॥ अचानक उसकी दृष्टि छिपकलीके उन बच्चोंपर पड़ी जो उसी समय विदीर्ण हुए अण्डेसे निकले थे, भूखकी पीड़ासे छटपटा रहे थे और इसलिए ही मक्खियाँ पकड़ने में तत्पर थे, उन्हें देखकर राजा सोचने लगा कि अपनी-अपनी आजीविकाके उपाय तो सभी जीव बिना किसीके उपदेशके अपने-आप अच्छी तरह जानते हैं इसलिए मुझे अपने छोटे-छोटे पुत्रोंकी चिन्ता करनेसे क्या लाभ है ? यही विचार कर गुणपाल महाराजने वसुपालके लिए विधिपूर्वक राज्य दिया और श्रीपालको पट्ट सहित युवराज बनाया। तदनन्तर
१ त्रस्त-प०, ल०। २ मुख्यः । ३ पुरीम् ल०। ४ विभूतिमान् प०, ल०, इ०। ५ धर्मार्थकाममोक्षाः । ६ ते धर्मादयः । ७ सज्जनेषु । ८ मिथ्यादष्टिषु । ९ धर्मार्थकाममोक्षस्वरूपवेदी। १० जननमरणविनाशी ममेष्टाविति । ११ त्वया सह । १२ तत्क्षणे स्फुटितकोशजातान् । १३ तत् कारणात् ।