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सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
४६६ आयुर्वायुरयं' मोहो भोगो भङ्गी हि संगमः । वपुः पापस्य दुष्पात्रं विद्युल्लोला विभूतयः ॥२३६॥ "मार्गविभ्रंशहेतुत्वाद् यौवनं गहनं वनम् । या रतिर्विषयेष्वेषा गवेषयति साऽरतिम् ॥२३७॥ सर्वम तत्सुखाय स्याद् यावन्मतिविपर्ययः । प्रगुणायां मतौ सत्यां किं तस्याज्यमतः परम् ॥२३८॥ चित्तद्रुमस्य चेद् वृद्धिरमिलाषविषाङ्कुरैः । कथं दुःखफलानि स्युः संभोगविटपेषु नः ॥२३६॥ भुक्तो भोगो दशाङ्गोऽपि यथेष्टं सुचिरं मया । मात्रामात्रेऽपि नानासीत्तृप्तिस्तृष्णाविघातिनी ॥२४०॥ अस्तु वास्तु समस्तं च संकल्पविषयीकृतम् । इष्टमेव तथाप्यस्मानास्ति' ब्यस्ताऽपि निर्वृतिः ॥२४॥ किल स्त्रीभ्यः सुखावाप्तिः पौरुषं २ किमतः परम् । दै-यमात्मनि संभाव्य सौख्यं स्यां परमः पुमान् ॥ इति स्त्रीपालचक्रेशः संत्यजन् वक्रतां धियः । अक्रमेणाखिलं त्यक्तुं सचक्रं मतिमातनोत् ॥२४३॥ ततः सुखावतीपुत्रं नरपालाभिधानकम् । कृताभिषेकमारोप्य समुत्तुङ्गं निजासनम् ॥२४॥ जयवत्यादिभिः स्वाभिर्देवीभिर्धरणीश्वरैः । वसुपालादिभिश्चामा संयम प्रत्यपद्यत ॥२४५॥ ... स बासमन्तरङ्गं च तपस्तप्त्वा यथाविधि । क्षपकश्रेणिमारुह्य मासेन (?) हतमोहकः ॥२५६॥
यथाख्यातमवाप्योरुचारित्रनिष्कषायकम् । ध्यायन् द्वितीयशुक्लेन वीचाररहितात्मता'' ॥२४७॥ उसी प्रकार चक्रवर्ती भी अपना चक्र ( चक्ररत्न ) घुमाकर मिट्टीसे उत्पन्न हुए रत्न या कर आदिसे अपनी आजीविका चलाता है - भोगोपभोगकी सामग्री जुटाता है इसलिए इस चक्रवर्तीके साम्राज्यको धिक्कार है ॥२३५।। यह आयु वायुके समान है, भोग मेघके समान हैं, इष्टजनोंका संयोग नष्ट हो जानेवाला है, शरीर पापोंका खोटा पात्र है और विभूतियाँ बिजलीके समान चंचल हैं ॥२३६।। यह यौवन समीचीन मार्गसे भ्रष्ट करानेका कारण होनेसे सघन वनके समान है और जो यह विषयोंमें प्रीति है वह द्वेषको ढूंढ़नेवाली है ॥२३७॥ इन सब वस्तुओंसे सुख तभी तक मालूम होता है जबतक कि बुद्धिमें विपर्ययपना रहता है। और जब बुद्धि सीधी हो जाती है - तब ऐसा जान पड़ने लगता है कि इन वस्तुओंके सिवाय छोड़ने योग्य और क्या होगा ? ॥२३८।। जब कि अभिलाषारूपी विषके अंकुरोंसे इस चित्तरूपी वृक्षकी सदा वृद्धि होती रहती है तब उसकी संभोगरूपी डालियोंपर भला दुःखरूपी फल क्यों नहीं लगेंगे ? ॥२३९।। मैंने इच्छानुसार चिरकाल तक दसों प्रकारके भोग भोगे परन्तु इस भवमें तृष्णाको नष्ट करनेवाली तृप्ति मुझे रंचमात्र भी नहीं हुई ॥२४०॥ यदि हमारी इच्छाके विषयभूत सभी इष्ट पदार्थ एक साथ मिल जायें तो उनसे थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता है ॥२४१।। स्त्रियोंसे सुखकी प्राप्ति होना ही पुरुषत्व है ऐसा प्रसिद्ध है परन्तु इससे बढ़कर और दीनता क्या होगी? इसलिए अपने आत्मामें ही सच्चे सुखका निश्चय कर पूरुष हो सकता हैपुरुषत्वका धनी बन सकता हूँ ॥२४२॥ इस प्रकार बुद्धिकी वक्रताको छोड़ते हुए श्रीपाल चक्रवर्तीने चक्ररत्नसहित समस्त परिग्रहको एक साथ छोड़नेका विचार किया ॥२४३।। तदनन्तर उसने नरपाल नामके सुखावतीके पुत्रका राज्याभिषेक कर उसे अपने बहुत ऊंचे सिंहासनपर बैठाया और स्वयं जयवती आदि रानियों तथा वसुपाल आदि राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली ॥२४४-२४५॥ उन्होंने विधिपूर्वक बाह्य और अन्तरंग तप तपा, क्षपक श्रेणीमें चढ़कर मोहरूपी शत्रुको नाश करनेसे प्राप्त होनेवाला कषायरहित यथाख्यात नामका उत्कृष्ट चारित्र प्राप्त किया, वीचाररहित द्वितीय शुक्ल ध्यानके द्वारा आत्मस्वरूपका १ वायुवेगी। २ मेघो ल० । ३ विनाशी। ४ इष्टसंयोगः । ५ सन्मार्गच्युतिकारपात्वात् । ६ स्रक्चन्दनादि । ७ मतेर्व्यायामः, मोहः । ८ इष्टस्रक्कामिन्यादिकादन्यत् । ९ अत्यल्पकालेऽपि । १० अल्पापि। ११ सुखम् । १२ कुशलाकुशलसमाचरणलक्षणं पौरुषम् । १३ संकल्पसुखम् । १४ अहं परमपुरुषो भवेयम् । १५ मोहारातिजयाजितम् ल०, ५०, अ०, स०, इ० । १६ एकत्ववितर्कवीचाररूपद्वितीयशुक्लध्यानेन ।