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आदिपुराणम् प्राशंसत् सा तयोस्ताङमाहात्म्यं सोऽपि विस्मयात् । रविप्रमः समागत्य तावुमौतद्गुणप्रियः ॥२१॥ स्ववृत्तान्तं समाख्याय युवाभ्यां क्षम्यतामिति । पूजयित्वा महारत्न कलोकं समीयिवान् ॥२७२॥ 'नथा चिरं विहृत्यात्तसंप्रीतिः कान्तया समम् । निवृत्त्य पुरमागत्य सुखसारं समन्वभूत् ॥२७॥ अथान्यदा समुत्पन्नबोधिर्मेघस्वराधिपः । तीर्थाधिनाथ मासाद्य वन्दित्वाऽऽनन्दभाजनम् ॥२४॥ कृत्वा धर्मपरिप्रश्नं श्रुत्वा तस्माद्यथोचितम् । आक्षेपिण्यादिकाः सम्यक कथाबन्धोदयादिकम् ॥२७५॥ कर्मनिर्मुक्तसंप्राप्यं शर्मसारं प्रबुद्धधीः । शिवंकरमहादेव्यास्तनूजो जगतां प्रियः ॥२७६॥ अवार्योऽनन्तवीर्याख्यः शत्रुभिः शस्त्रशास्त्रवित् । आकुमारं यशस्तस्य शौर्य शत्रुजयावधि ॥२७७॥ त्यागः सर्वार्थिसंतपी सत्यं स्वप्नेऽप्यविप्लुतम् । विधायामिषवं तस्मै प्रदायात्मीयसंपदम् ॥२७८॥ पदं परं परिप्राप्नुमव्यग्रममिलाषुकः । विसर्जितसगोत्रादिर्विनिर्जिवनिजेन्द्रियः ॥२७९॥ वितर्जितमहामोहः समर्जितशुभाशयः। विजयेन जयन्तेन संजयन्तेन सानुजैः ॥२८॥ अन्यैश्च निश्चितत्यागै रागद्वेषाविदूषितैः । रविकीर्ती ४ १"रिपुजयोऽरिन्दमोऽरिंजयाह्वयः ॥२८॥
सुजयश्च सुकान्तश्च सप्तमश्चाजितंजयः । महाजयोऽतिवीर्यश्च वीरंजयसमाह्वयः ॥२८२॥ - रविवीर्यस्तथाऽन्ये च तनूजाश्चक्रवर्तिनः । तैश्च साद्धं सुनिविण्णैश्चरमाङ्गो विशुद्धि भाक ॥२८३॥
वृत्तान्त कहकर उन दोनोंसे क्षमा माँगी और फिर बड़े-बड़े रत्नोंसे पूजा कर वह स्वर्गको चला गया । इधर जयकुमार भी प्रिया-सुलोचनाके साथ चिरकाल तक बड़े प्रेमसे विहारकर वापस लौटे और नगरमें आकर श्रेष्ठ सुखोंका अनुभव करने लगे ॥२५९-२७३॥
अथानन्तर-जिसे आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे जयकुमारने किसी एक दिन आनन्दके पात्र श्री आदिनाथ तीर्थकरके पास जाकर उनकी वन्दना की, धर्मविषयक प्रश्न कर उनका यथा योग्य उत्तर सुना, आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहीं और कर्मो के बन्ध उदय आदिकी चर्चा की ॥२७४-२७५।। इस प्रकार प्रबुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले जयकुमारने कर्मोके नाशसे प्राप्त होने योग्य श्रेष्ठ सुखको प्राप्त किया । तदनन्तर उसने जो लोगोंको बहुत ही प्रिय है, जिसे शत्रु नहीं रोक सकते हैं, जो शस्त्र और शास्त्र दोनोंका जाननेवाला है, जिसका यश कुमार अवस्थासे ही फैल रहा है, जिसकी शूरवीरता शत्रुओंके जीतने तक है, जिसका दान सब याचकोंको सन्तुष्ट करनेवाला है, और जिसका सत्य कभी स्वप्नमें भी खण्डित नहीं हुआ है ऐसे शिवंकर महादेवीके पुत्र अनन्तवीर्यका राज्याभिषेक कर उसे अपनी सब राज्य-सम्पदा दे दी ॥२७६-२७८॥ तदनन्तर जो आकुलतारहित परम पद प्राप्त करनेकी इच्छा कर रहा है, जिसने अपने सब कुटुम्बका परित्याग कर दिया है, अपनी इन्द्रियोंको वश कर लिया है, महामोहको डाँट दिखा दी है और शुभासवका संचय किया है ऐसे चरमशरीरी तथा विशुद्धिको धारण करनेवाले जयकुमारने विजय, जयन्त, संजयन्त तथा परिग्रहके त्यागका निश्चय करनेवाले और राग-द्वेषसे अदूषित अन्य छोटे भाइयों एवं रविकीति, रविजय, अरिंदम, अरिंजय सुजय, सुकान्त, सातवाँ अजितंजय, महाजय, अतिवीर्य, वरंजय, रविवीर्य तथा इनके सिवाय और भी वैराग्यको प्राप्त हुए चक्रवर्तीके पुत्रोंके साथ-साथ दीक्षा धारण की ॥२७९-२८३।। १ प्रशसां चकार । २ जयसुलोचनयोः । ३ तया ल०। ४ मण्डभाजन कल्याणभाजनं वा। तीर्थादि-ल। ५ आक्षेपणी विक्षेपणी संवैजनी निर्वेजनीति चेति चतस्रः । “आक्षेपणी स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी विक्षेपणीं कुमतनिग्रहणीं यथाहम् । संवेजनों प्रथयितुं सुकृतानुभावं निर्वेजनों वदतु धर्मकथाविरक्त्यै ॥" ६ कृत्वा कथाबन्धोदयादिकाः ल०, ५०, इ०, स० । ७ कर्मबन्धविमुक्तः प्राप्तुं योग्यम् । ८ जनताप्रियः ल०, ५०, अ०, स०, इ० । ९ कुमारकालादारभ्य । १० अनन्तवीर्यस्य । ११ अविच्युतम् । निधिं वा । १२ बान्धवादि । 'सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः' इत्यभिधानात् । १३ शुभास्रकः ल०। १४ रविकोतिनामा । १५ रविजयो ल०, १०, स०, इ० । १६ वरञ्जय ल०, अ०, १०, स० ।