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आदिपुराणम्
घातिकर्मत्रयं हत्वा संप्राप्तनव केवलः । सयोगस्थानमाक्रम्य वियोगो वीतकल्मषः ॥ २४८ ॥ 'शरीरचितयोपायादाविष्कृतगुणोत्करः । अनन्तशान्तमप्रायमवाप सुखमुत्तमम् ॥ २४९ ॥ तस्य राज्यश्च ताः सर्वा विधाय विविधं तपः । स्वर्गलोके स्वयोग्योरुविमानेष्वभवन् सुराः ॥ २५० ॥ आवां चाकर्ण्य तं नत्वा गत्वा नाकं निजोश्चितम् । अनुभूय सुखं प्रान्ते शेषपुण्य विशेषतः ॥ २५१॥ इहागताविति व्यक्तं व्याजहार सुलोचना । जयोऽपि स्वप्रियाप्रज्ञाप्रभावादतुषत्तदा ॥ २५२ ॥ तदा सदस्सदः सर्वे प्रतीयु स्तदुदाहृतम् । कः प्रत्येति न दुष्टश्चेत् सद्भिर्निगदितं वचः ॥ २५३॥ एवं सुखेन साम्राज्य भोगसारं निरन्तरम् । भुआनौ रञ्जितान्योन्यौ कालं गमयतः स्म तौ ॥२५४॥ तदा "खगमवावातप्रज्ञप्तिप्रमुखाः श्रिताः । विद्यास्तां २ च महीशं च संप्रीत्या तौ ननन्दतुः ॥ २५५॥ "तलात् कान्तया सार्द्धं विहर्तुं सुरगोचरान् । वाञ्छन् देशान् निजं राज्यं नियोज्य विजयेऽनुजे ॥ २५६॥ यथेष्टं सप्रियो विद्यावाहनः सरितां पतीन् । कुलशैलानदीरम्यवनानि विविधान्यपि ॥२५७॥ विहरन्नन्यदा मेघस्वरः कैलासशैलजे । वने सुलोचनाभ्यर्णादसौ किंचिदपासरत् ॥ २९८ ॥
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चिन्तवन करते हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंको नष्ट कर नौ केवललब्धियाँ प्राप्त कीं, सयोगकेवली गुणस्थान में पहुँचकर क्रमसे योगरहित होकर सब कर्म नष्ट किये और अन्त में औदारिक, तेजस, कार्माण - तीनों शरीरोंके नाशसे गुणोंका समूह प्रकट कर अनन्त, शान्त, नवीन और उत्तम सुख प्राप्त किया ।। २४६ - २४९ ॥ श्रीपाल चक्रवर्तीको सब रानियाँ भी अनेक प्रकारका तप तपकर स्वर्गलोकमें अपने-अपने योग्य बड़ेबड़े विमानोंमें देव हुई ॥२५० || सुलोचना जयकुमारसे कह रही है कि हम दोनों भी ये सब कथाएँ सुनकर एवं गुणपाल तीर्थ करको नमस्कार कर स्वर्ग चले गये थे और वहाँ यथायोग्य • सुख भोगकर आयुके अन्त में बाकी बचे हुए पुण्यविशेषसे यहाँ उत्पन्न हुए हैं । ये सब कथाएँ सुलोचनाने स्पष्ट शब्दोंमें कही थीं और जयकुमार भी अपनी प्रियाकी बुद्धिके प्रभावसे उस समय अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ था ॥ २५१ - २५२ ॥ उस समय सभामें बैठे हुए सभी लोगोंने सुलोचना के कहने पर विश्वास किया सो ठीक ही है, क्योंकि जो दुष्ट नहीं है वह ऐसा कौन है जो सज्जनोंके द्वारा कहे हुए वचनोंपर विश्वास न करे ।। २५३ || इस प्रकार साम्राज्य तथा श्रेष्ठ भोगोंका निरन्तर उपभोग करते और परस्पर एक दूसरेको प्रसन्न करते हुए वे दोनों सुख से समय बिताने लगे ||२५४|| उसी समय पहले विद्याधरके भवमें लक्ष्मीको बढ़ानेवाली जो प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ थीं वे भी बड़े प्रेमसे जयकुमार और सुलोचना दोनोंको प्राप्त हो गयीं || २५५ || उन विद्याओंके बलसे महाराज जयकुमारने अपनी प्रिया सुलोचनाके साथ देवोंके योग्य देशोंमें विहार करने की इच्छा की और इसलिए ही अपने छोटे भाई विजयकुमारको राज्यकार्य में नियुक्त कर दिया ॥ २५६ ॥
तदनन्तरे जिसकी सवारियाँ विद्याके द्वारा बनी हुई हैं ऐसा वह जयकुमार अपनी प्रिया - सुलोचनाके साथ-साथ समुद्र, कुलाचल और अनेक प्रकारके मनोहर वनों में विहार करता
१ संप्राप्तक्षायिकज्ञानदर्शनसम्यक्त्व चारित्रदानलाभभोगोपभोगवीर्याणीतिनव केवललब्धिः । २ आदारिकशारीरकार्मणमिति शरीर त्रय विनाशात् । ३ अनन्तं शान्तमप्राप्तमवाप्तः इ० अ०, स०, ल०, प० । अप्रायमनुपमम् । 'प्रायश्चानशने मृत्यौ तुल्यबाहुल्ययोरपि' इत्यभिधानात् । ४ यथोचितम् ल०, प०, अ०, स०, इ० । ५ आयुरन्ते । ६ उवाच । ७ सदः सीदन्तीति सदस्सदः । सभां प्राप्ता इत्यर्थः । ८ विश्वस्तवन्तः । ९ सुलोचनावचनम् । १० न श्रद्दधाति । ११ हिरण्यवर्म प्रभावतीभवे प्राप्त । १२ सुलोचनाम् । १३ जयम् । १४ वर्धितश्रियः ल०, प०, इ०, स० । १५ प्रज्ञप्त्यादिविद्याबलात् । १६ पतिम् ल०, प०, इ०, स० । १७ अपसरति स्म ।