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आदिपुराणम
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इत्याह तद्वचः श्रुत्वा प्रमुद्येत्य खगाचले । पुरं दक्षिणभागस्थं गजादि तत्समीपगम् ॥ १२८ ॥ कंचित् गजपति स्तम्भमुम्ल्याउदकम्। द्वात्रिंशदुकक्रीडाभिः क्रीडत्या यशमानयत् ॥ १२१ ॥ ततः समुदिते चण्डदीधिती' निर्जिताद् गजात् । कुमारागमनं पौरा बुद्ध्वा संतुष्टचेतसः ॥१३०॥ प्रतिकेतनमुपताककाः प्रत्युद्गममकुर्वतं तत्पुण्योदय चोदिताः ॥ १३१ ॥ ततो नभस्य सौ गच्छन् कंचिद्वयपुरे हयम् । स्थितं प्रदक्षिणीकृत्य त्वं पश्यन्नात्तविस्मयः ॥ ९३२॥ नत्रापि विदिनादेश नागरः प्राप्तपूजनः पुनस्ततोऽपि निष्क्रम्य समागच्छन्निजेच्छया ॥ १३३ ॥ 'चतुर्जनपदाभ्यन्तरस्थसीममहाचले | जने महति संभूय स्थिते केनापि हेतुना ॥ १३४॥ कस्यचित कोशतः खड्गं कस्मिँश्चिदपि यत्नतः । सत्यशक्ते समुत्खानुं तं समुद्गीर्य हेलया ॥ कुमारः "प्राह वंशस्त संत वंशकम् तदालोक्य जनः सर्वः प्रमोदादारवं व्यवान् ॥ १३६॥ तत्र कश्चित् समागत्य मूकः समुपविष्टवान् । प्रप्रणम्य कुमारं तं जयशब्दपुरस्सरम् ॥ १३७ ॥
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"कुण्ड कचिदस्या प्रसारितकराङ्गुलि अलि मुकुलीकृत्य समीपं समुपस्थितः ॥१३८॥ यो वज्रमणिपाका समुयुक्तस्तदा मुदा । तेषां पाके व्यलोकिट कुमारं विनयेन सः ॥ १३९॥
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रही हूँ" ।। १२५-१२७। उसके यह वचन सुनकर श्रीपाल बहुत ही हर्षित हुआ और वहांसे आगे चलकर विजयार्ध पर्वत के दक्षिण भाग में स्थित गजपुर नगरके समीप जा पहुँचा || १२८|| वहाँ कोई एक गजराज खम्भा उखाड़कर मदोन्मत्त हो रहा था उसे कुमारने शास्त्रोक्त बत्तीस क्रीड़ाओंसे कोड़ा कराकर वश किया || १२९|| तदनन्तर सूर्योदय होते-होते नगरके सब लोगोंने गजराजको जीत लेनेसे कुमारका आना जान लिया, सबने सन्तुचित्त होकर घर-घर चंचल पताकाएँ फहरायीं और कुमारके पुण्योदयसे प्रेरित होकर सब लोगोंने उसकी अगवानी की ।।१३०-१३१।। कुमार वहाँसे भी आकाशमें चला, चलता चलता हयपुर नगर में पहुँचा वहाँ एक घोड़ा कुमारकी प्रदक्षिणा देकर समीप ही में खड़ा हो गया, कुमारने यह सब स्वयं देखा परन्तु उसे कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ ।। १३२ ।। जब नगरनिवासियोंको इस बातका पता चला तब सबने कुमारका सत्कार किया, कुमार वहाँसे भी निकलकर अपनी इच्छानुसार आगे चला ।।१३३।। चलता-चलता चार देशोंके बीचमें स्थित सुसीमा नामक पर्वतपर पहुँचा । वहाँ किसी कारण बहुत-से लोग इकट्ठे हो रहे थे, वे प्रयत्न कर म्यानसे तलवार निकाल रहे
थे
परन्तु उनमें से कोई भी उक्त कार्यके लिए समर्थ नहीं हो सका परन्तु कुमारने उसे लीलामात्र में निकाल दिया जिसमें बहुत से बाँस उलझे हुए खड़े थे, ऐसे बाँसके विपर उसे चलाया यह देखकर सब लोगोंने बड़े पैसे कुमारका आदर-सत्कार किया ।। १३४ - १३६ ।। इतनेमें ही वहाँ एक गंगा मनुष्य आया और जय जय शब्दका उच्चारण करता हुआ कुमारको प्रणाम कर बैठ गया || १३७|| वहींपर एक टेढ़ी अंगुलीका मनुष्य आया, कुमारको देखते ही उसकी अंगुली ठीक हो गयी, उसने हाथकी अंगुली फैलाकर हाथ जोड़े और नमस्कार कर पास ही खड़ा हो गया || १३८ || वहींपर एक मनुष्य हीराओंकी भस्म बना रहा था, वह बनती नहीं थी परन्तु कुमारके सन्निधानसे वह बन गयो इसलिए उसने भी बड़ी विनयसे कुमारके दर्शन किये
१ संतुष्य । २ गजपुरम् । ३ उदयं गते सति । ४ सूर्ये । ५ प्रतिगृहम् । ६ सम्मुखागमनम् । ७ चक्रिरे । ८ श्रीपालपुष्प ९ स्वयं पश्यन्नविस्मयः ल० इ० अ० स० १० चतुर्दशमध्यस्थितसीमारूप महागिरी । ११ महागिरौ ट० । १२ मिलित्वा । १३ खड्गपिधानतः । १४ खड्गम् । १५ उत्खातं कृत्वा । १६ प्रहरति स्म । १७ वेणुगुल्मम् | १८ परिवेष्टितकम् १९ दारं ल० प० २० कुजश्य अ०, स० कुणिश्व ल० । विनालः ।
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