Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 514
________________ आदिपुराणम् crorest स्मै संमानपूर्वकम् । प्रीत्या धनं हिरण्यादि प्रभूतमदितोचितम् ॥२०३॥ लोक्य' तं वणिक्पुत्राः सर्वेऽपि धनमार्जितम् । ग्रामे पुरोपकण्ठस्थे संभूय विनिवेशिरे ॥ २०२ ॥ " तन्निवेशादथाऽन्येयुः स समुद्रादिदत्तकः । रात्रौ स्वगृहमागत्य भार्यासंपर्कपूर्वकम् ॥ २०३ ॥ केनाध्यविदितो रात्रावेव सार्थमुपागतः । काले गर्भं विदित्वाऽस्याः पापो दुश्चरितोऽभवत्"" ॥२०४॥ इति सागरदत्ताख्यस्या' भर्तृसमागमम् । बोधितोऽप्यपरीक्ष्यासी स्वर्ग हा "त्तामपाकरोत् ॥ २०५ ।। ततः श्रेष्टिगृहं याता तेनापि त्वं दुराचरा" । "नास्मद्गेहं समागच्छेत्यज्ञानात् सा निवारिता ॥ २०६॥ समीपवर्तिन्येकस्मिन् केतने विहितस्थितिः । नवमासावधौ पुत्रलब्धानल्पपुण्यकम् ॥ २०७॥ २ RE दिया कुलस्यैष समुत्पन्नः पराभवः । यत्र वचन नीवैनं निक्षिपेत्यनुजीविकः ॥२०८॥ प्रत्येयः श्रेष्टिना प्रोक्तः श्रष्टिमित्रस्य बुद्धिमान् । स्मशाने साधितुं विद्यामागतस्य खयायिनः ॥ २०९ ॥ बालं समर्पयामास विचित्रो दुरितोदयः । खगोऽसौ जगधामाख्यो जयमामास्य वल्लभा ॥ २१० ॥ २७ " भोगपुर वास्तव्य" जितशत्रु समाह्वयम् । कृत्वावर्धयतां पुत्रमित्र मस्यौरवं मुदा ॥२११॥ ४३६ १२ O राजाने भी उसका सम्मान किया और बड़े प्रेमसे उसके लिए यथायोग्य बहुत-सा सुवर्ण आदि धन वापिस दिया || २०० - २०१ ॥ यह देखकर सब वैश्यपुत्र धन कमानेके लिए बाहर निकले और सब मिलकर नगरके समीप ही एक गाँव में जाकर ठहर गये ॥ २०२ || दूसरे दिन समुद्रदत्त रात्रि में उन डेरोंसे अपने घर आया और अपनी स्त्रीसे संभोग कर किसीके जाने बिना ही रात्रि में ही अपने झुण्ड में जा मिला। इधर समयानुसार उसका गर्भ बढ़ने लगा। जब इस बातका पता समुद्रदत्त के बड़े भाई सागरदत्तको चला तब उसने समझा कि यह अवश्य ही इसका पापरूप दुराचरण है । समुद्रदत्त की स्त्री सर्वदयिताने पति के साथ समागम होनेका सब समाचार यद्यपि बतलाया तथापि उसने परीक्षा किये बिना ही उसे घर से निकाल दिया || २०३ - २०५ ॥ तब सर्वदयिता अपने भाई सेठ सर्वदयितके घर गयी परन्तु उसने भी अज्ञानतासे यही कहकर उसे भीतर जानेसे रोक दिया कि 'तू दुराचारिणी है, मेरे घरमें मत आ' ॥ २०६॥ तदनन्तर वह पास ही एक दूसरे घर में रहने लगी, नौ महीनेकी अवधि पूर्ण होनेपर उसने एक अतिशय पुण्यवान् पुत्र प्राप्त किया || २०७ || जब सेठ सर्वदयितको यह खबर लगी तो उसने समझा यह पुत्र क्या, हमारे कुलका कलंक उत्पन्न हुआ है, इसलिए उसने एक नौकरको यह कहकर भेजा कि 'इसे ले जाकर किसी दूसरी जगह रख आ' । वह सेवक बुद्धिमान् था और सेठका विश्वासपात्र भी था, वह बालकको ले गया और सेठके एक विद्याधर मित्रको जो कि विद्या सिद्ध करनेके लिए श्मशान में आया था, सौंप आया सो ठीक ही है क्योंकि पापका उदय बड़ा विचित्र होता है। सेठके उस मित्रका नाम जयधाम था और उसकी स्त्रीका नाम जयभामा था । वे दोनों भोगपुर के रहनेवाले थे उन्होंने उस पुत्रका नाम जितशत्रु रखा और उसे औरस पुत्रके समान मानकर वे बड़ी प्रसन्नतासे उसका पालन-पोषण करने लगे ॥२०८ १ ददर्श । २ धनंजयाय । ३ ददौ । ४ धनंजयं राज्ञा पूजितोऽयं दृष्ट्वा । ५ - मजितुम् ल० । ६ तच्छिबिरात् । ७ देवश्री सागरसेनयोः पुत्रः समुद्रदत्तः । ८ शिबिरम् । ९ सर्वदत्तायाः । १० अशोभनव्यवहारः । ११ दुर्वृत्त: कचिज्जारोऽभवदिति । १२ सर्वदयितया । १३ निजपुरुषागमनम् । १४ मम भर्त्ता शिबिरादागत्य मया सह। सम्पर्क कृतवानिति निवेदितोऽपि । १५ सर्वदयिताम् । १६ निष्कासितवान् । १७ निजाग्रसर्वदयितश्रेष्ठिगृहम् । १८ दुष्टमाचरस्मि । १९ नास्मद्गृहं ल०, अ०, प०, स०, इ० । २० गृहे । २१ शिशुः | २२ यत्र कुत्रापि । २३ स्थापय । २४ भृत्यः | २५ विश्वास्यः । २६ विद्याधरस्य । २७ जयधामजयभामेति द्वौ । २८ भोगपुर निवासिनो । २९ शिशोजितशत्रुरित्याख्यां कृत्वा । ३० वर्धयतः स्म ।

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