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आदिपुराणम् वसंस्तत्र महाकालस्तं गृहीतुमुपागतः । तस्य पुण्यप्रभावेन सोऽप्यकिंचित्करो गतः ॥१०४॥ तन शय्यातले सुप्त्वा शुची मृदुनि विस्तृते । परेद्यर्निर्गतं तस्याः संप्रयुक्तैः परीक्षितम् ॥१०५॥ आदिष्टपुरुषं भृत्यैत्विाऽभ्येत्य निवेदितम् । गृहीत्वा स्थविराकारं कोपपावकदीपितः ॥१०६॥ तं वीक्ष्य धूमवेगाख्यः खगश्चन्द्र पुराद् बहिः । श्मशानमध्ये पाषाणनिशातविविधायुधैः ॥१०७॥ 'न्यगृहात्तानि चास्यासन् पतन्ति कुसुमानि वा । परोऽपि खेचरस्तव नरंशोऽतिवलाह्वयः ॥१०॥ स्वदव्यां चित्रसेनायां भृत्ये दुष्टतरे सति । तं निह त्यादहत्तस्मिन् धूमवेगो निधाय तम् ॥१०॥ कुमारं चागमत्तत्र महौषधजशक्तितः । निराकृतज्वल इतिशक्तिस्तस्मात् स निर्गतः ॥१६॥ हतानुचरभार्यात्र काचिन्निरपराधकः । हतो नृपेण मभतेत्यस्य शुद्धिप्रकाशिनी ॥१११॥ तत्कुमारस्य संस्पर्शान्निश्शक्ति सा हुताशनम् । विदित्वा प्राविशद् दृष्ट्वा कुमारस्तां सकौतुकः ॥११२॥ अभंद्यमपि बज्रेण स्त्रीणां मायाविनिर्मितम् । कवचं दिविजेशा च नीरन्ध्रमिति निर्भयः ॥११३।। स्थितस्तत्र स्मरन्नेवं सुता तन्नगरेशिनः । राज्ञो विमलसेनस्य वत्यन्तकमलाह्वया ॥११४॥
कामग्रहाहिता तस्यास्तद्ग्रहापजिहीर्षया । जने समुदिते सद्यः कुमारस्तमपाहरत् ॥११॥ क्रोधसे उस स्थानसे ले जाकर महाकाल नामकी गुफामें गिरा दिया। उस गुफामें एक महाकाल नामका व्यन्तर रहता था वह उसे पकड़नेके लिए आया परन्तु कुमारके पुण्यके प्रभावसे अकिंचित्कर हो चला गया-उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। वह कुमार उस दिन उसी गुफामें पवित्र, कोमल और बड़ी शय्यापर सोकर दूसरे दिन वहाँसे बाहर निकला, यद्यपि उसने अपना बूढेका रूप बना लिया था तथापि धूमवेगके द्वारा परीक्षाके लिए नियुक्त किये हुए पुरुषोंने उसे पहचान लिया, स्वामीके पास जाकर उन्होंने सब खबर दी और पकड़कर श्रीपालकुमारको सामने उपस्थित किया। क्रोधरूपी अग्निसे प्रज्वलित हुए धूमवेग विद्याधरने कुमारको देखकर आज्ञा दी कि इसे नगरके दाहर श्मशानके बीच पत्थरपर घिसकर तेज किये हुए अनेक शस्त्रोंसे मार डालो। सेवक लोग मारने लगे परन्तु वे सब शस्त्र उसपर फूल होकर पड़ते थे । इसोसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और लिखी जाती है जो इस प्रकार है -
उसी नगरमें एक अतिवल नामका दूसरा विद्याधर राजा रहता था ।।६८-१०८॥ उसकी चित्रसेना नामकी रानीसे कोई दुष्ट नौकर फंस गया था, इसलिए राजा उसे मारकर जला रहा था । धूमवेग विद्याधर श्रीपालकुमारको उसी अग्निकुण्डमें रखकर चला गया परन्तु कुमारकी महौषधिको शक्तिसे वह अग्नि निस्तेज हो गयी इसलिए वह उससे बाहर निकल आया। उस मारकर जलाये हुए सेवककी स्त्रीको जब इस बातका पता चला कि कुमारके स्पर्शसे अग्नि शक्ति रहित हो गयी है तब वह स्वयं उस अग्नि में घुस पड़ी और उससे निकलकर यह कहती हुई अपनी शुद्धि प्रकट करने लगी कि 'मेरा पति निरपराध था राजाने उसे व्यर्थ ही मार डाला है ।' कुमारको यह सब चरित्र देखकर बड़ा कौतुक हुआ, वह सोचने लगा कि 'स्त्रियोंकी मायासे बने हुए इस कवचको इन्द्र भी अपने वज्रसे नहीं भेद सकता है, यह छिद्ररहित है' इस प्रकार सोचता हुआ वह निर्भय होकर वहीं बैठा था। इधर उस नगरके स्वामी राजा विमलसेनकी पुत्री कमलावती कामरूप पिशाचसे आक्रान्त हो रही थी, उसके उस पिशाचको दूर करनेकी इच्छासे बहुत आदमी इकट्ठे हुए थे, श्रीपालकुमार भी वहाँ गया था और उसने उस पिशाचको दूर १ मुक्षितुमित्यर्थः । २ गुहायाः सकाशात् । ३ सप्रयुक्तैः ब० । सुप्रयुक्तैः ल०, अ०, प० । ४ पिप्पलायाः मैथुनः । ५ निशित । ६ निग्रहं चकार । ७ पाषाणायुधानि । ८ हत्वा। ९ चिताग्नौ। १० पुरा स्मशाने हरिकेतीविद्यया निन्तिं पीत्वा जातमहौषधिशक्तितः । ११ स्वभर्तुः । १२ कपटमित्यर्थः । १३ इन्द्रेण । १४ कानग्रहमहर्तुमिच्छया । १५ एकत्र मिलिते सति । १६ कामग्रहमपसारितवानित्यर्थः ।