Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 504
________________ आदिपुराणम जगाद साऽपि मापं प्रायादेशवादिति । कम्बलावाप्तितस्तन्तं समाप्यायविलाम् ॥७७॥ तस्याः सखीया समम् समागता । कालनाव्य पुरानाम्ना मदनादिवती सदा ॥ ७८ ॥ दृष्ट्वा तत्कम्बलस्यान्तं निबद्ध रत्नमुद्रिकाम् । तत्र श्रीपालनामाक्षराणि चादेशसंस्मृतः ॥ ७९ ॥ अकायसायकोद्भिन्नहृदयाभूहं ततः । कथं वैद्याधरं लोकमिमं श्री पालनामभृत् ॥८०॥ समागतः स इत्येतन्निश्चेतुं पुण्डरीकिणीम् । उपगत्य जिनागारे वन्दित्वा समुपस्थिता ॥ ८१ ॥ त्वत्प्रवासकथां तव मातुः प्रजल्पनात् । विदित्वा विस्तरेण त्वामानेष्यामीति निश्चयात् ॥ ८२ ॥ आगच्छन्ती भवार्ता विद्युद्वेगामुखोद्गताम् । अवगन्य त्वया सार्द्धं योजयिष्यामि ते प्रियम् ॥ ८ ॥ ॥ व विषादी विधातव्य इत्याश्वास्य भवन्प्रियाम् । विनिर्गत्य ततोऽभ्येत्य सिद्धकूटजिनालयम् ॥ ८४ ॥ अभिवन्द्यागताऽस्येहि मयाऽमा पुण्डरी किणीम् । मातरं भ्रातरं चान्यांस्त्वद्वश्च समीक्षितुम् ॥ ८५ ॥ यदीच्छास्ति तत्रेत्याह सा तच्छु वा पुनः कुतः त्यमेव जस्ती जातत्वीत् स सुखावतीम् ॥ ८६ ॥ कुमारवचन कर्णनेन वार्द्धक्यमागतम् । भवतश्च न किं वेत्सीत्यपहस्य तयोदितम् ॥ ८१ ॥ जराभिभूतमालस्य स्वशरीरमिदं खया कृतमेवंविधं केन हेतुनेत्यनुयुक्तवान् ॥ ८८ ॥ तच्छ्रु देवपादिता महनादवतीया च मैथुन विभुती ॥८॥ बलवान् धूमवेगाख्यस्तादृग्घरिवरोऽपि च । तद्भयात्वां तिरोधाय पुरं प्रापयितुं मया ॥ ६०॥ मायारूपद्वयं विद्याभावात् प्रकटीकृतम् । कुमार, मत्करस्यामृतास्वादुफलभक्षणात् ॥ ६१ ॥ १८ 15 ४८६ 93 3 समय कांचनपुर नगर से आयी उसने वह कम्बल देखा, कम्बल के छोर में बंधी हुई रत्नोंकी अँगूठी और उसपर खुदे हुए श्रीपाल के नामाक्षर देखकर मुझे अपने गुरुकी आज्ञाका स्मरण हो आया, उसी समय मेरा हृदय कामदेवके बाणोंसे भिन्न हो गया, मैं सोचने लगी कि श्रीपाल नामको धारण करनेवाला यह भूमिगोचरी विद्याधरोंके इस लोक में कैसे आया? इसी बातका निश्चय करने के लिए मैं पुण्डरीकिणी पुरी पहुंची, वहाँ जिनालय में भगवान्‌को वन्दना कर बैठी ही थी कि इतने में वहाँ आपकी माता आ पहुँची, उनके कहने से मैंने विस्तारपूर्वक आपके प्रवासकी कथा मालूम की और निश्चय किया कि मैं आपको अवश्य ही ढूँढ़कर लाऊंगी । उसी निश्चयके अनुसार में आ रही थी, रास्ते में विद्युद्वेगाके मुखसे आपका सब समाचार जानकर मैंने उससे कहा कि 'तू अभी विवाह मत कर, मैं तेरे इष्टपतिको तुझसे अवश्य मिला दूँगी' इस प्रकार आपकी भावी प्रियाको विश्वास दिलाकर यहांसे निकली और सिद्धकूट चैत्यालयमें पहुँची । वहाँको वन्दना कर आयी हूँ, यदि माता भाई तथा अन्य बन्धुओंको देखनेकी तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ पुण्डरीकिणी पुरीको चलो, यह सब सुनकर मैंने सुखावती से फिर कहा कि अच्छा, यह बतला तू इतनी बूढ़ी क्यों हो गयी है ? कुमारके वचन सुनकर उस बुढ़ियाने हँसते-हँसते कहा कि क्या आप अपने शरीरमें आये हुए बुढ़ापेको बूढ़े हो रहे हैं । कुमारने अपने शरीरको बूढ़ा देखकर उससे पूछा प्रकार बूढ़ा क्यों कर दिया है।' कुमारकी यह बात सुनकर वह इस कथन पहले कर आयी हूँ ऐसी पिप्पला और मदनवती नामकी दो । नहीं जानते - आप भी तो कि ' तूने मेरा शरीर इस तरह कहने लगी कि जिनका कन्याएँ हैं, उन्हें दो प्रसिद्ध ० ३ कम्पलवन्तं पुरुषम् " २ कम्बल २ कम्बलप्राप्तिमादि कृत्वेत्यर्थः कम्बलप्राप्तिस्त अ० स० ४ पिपलाम् । ५ पिप्पलायाः । ६ मुद्रिकायाम् । ७ संस्मृती इ० अ०, स०, प० । ८ कामबाण । ९ सुखावती । १० भवद्देशान्तरगमनकथाम् । ११ विवाहो ल० । विदोषो अ०, स० । १२ अत्रागताहम् । १३ आगच्छ । १४ सुखावतीवचनमाकर्ण्य । १५ श्रीपालः । १६ कुमारवाचमाकर्ण्य इ० अ०, स० । कुमारवचनाकर्ण्य ल० । १७ धूमवेगरवरभपात् १८ पुण्डरीकणीम् १९ मम जरतीरूपम् भवतश्च वाक्यमिति इयम् ।

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