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सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
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सत्योऽभूत् प्राक्तनादेश इति तस्मै महीपतिः । तुष्ट्वा तां कन्यां दिल्लुस्तस्यानिच्छां विबुध्य सः ११६ अभ्यर्णं वन्धुवर्गस्य नेयोऽयं भवता द्रुतम् । यत्नेनेत्यात्मजं स्वस्य वरसेनं समादिशत् ॥ ११७ ॥ नया खोऽपि कुमारं तं विमलादिपु बहिः । वने तृष्णोपसंतप्तं स्थापयित्वा गत॥११८॥ तदा सुखावती कुजा भूत्वा कुसुममालया । परिस्पृश्य तृषां नीत्वा कन्यकां तं चकार सा ॥१६६॥ भूमयेगो हरिवरश्चैतां वीक्ष्याभिलाषिणौ । अभूतां यमात्सर्यौ तस्याः स्वीकरणं प्रति ॥ १२० ॥ द्वेषवन्तौ तदाऽऽलोक्य युवयोर्विग्रहो वृथा । पतिर्भवत्वसावस्या यमेषाऽभिलषिष्यति ॥ १२१ ॥
इति बन्धुजनैर्वार्यमाणौ वैराद् विरेमतुः । स्त्रीहेतोः कस्य वा न स्यात् प्रतिघातः परस्परम् ॥ १२२॥ कन्याकृत्यैव वातः कान्तया स सुकान्तया । रतिकान्ताख्यया कान्तवत्या च सहितः पुनः ॥ १२३ ॥ स्थितं प्रातरूपेण कालिज्जता रतिं समागमन काचिन्नैकनावा हि योषितः ॥ १२५ ॥ प्रसुप्तवन्तं तं तत्र प्रत्यूषे च सुखावती । यत्नेनोद्धृत्य गच्छन्ती तेनोन्मीलितचक्षुषा ॥१२५॥
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सामिकाकिनं त्वं च प्रस्थितेति सा पृष्टा न क्यापि यावत्समीपगता सदा ॥ १२६ ॥ आदिष्टवनितारत्नलाभो नैवात्र ते भयम् । इत्यन्तर्हितमापाद्य स्वरूपेण समागमः ॥ १२७ ॥
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।' यह
कर दिया था । 'निमित्तज्ञानियोंने जो पहले आदेश दिया था वह आज सत्य सिद्ध हुआ देख राजाने सन्तुष्ट होकर वह पुत्री कुमारको देनी चाही परन्तु जब कुमारकी इच्छा न देखो तब उसने अपने पुत्र वरसेनको आज्ञा दी कि इन्हें शीघ्र ही बड़े यत्नके साथ इनके बन्धु वर्ग के समीप भेज आओ ।। १०९-११७। वह वरसेन भी कुमारको लेकर चला और विमलपुर नामक नगरके बाहर प्यास से पीड़ित कुमारको बैठाकर पानी लेनेके लिए गया || ११ | उसी समय कूबड़ीका रूप बनाकर सुखावती वहाँ आ गयी, उसने अपने फूलोंकी माला के स्पसि कुमारको प्यास दूर कर दी और उसे कन्या बना दिया ।। ११९ ।। उस कन्याको देखकर धूमवेग और हरिवर दोनों ही उसकी इच्छा करने लगे । उसे स्वीकार करनेके लिए दोनों ईर्ष्यालु हो उठे और दोनों ही परस्पर द्वेष करने लगे। यह देखकर उनके भाई बन्धुओंने रोका और कहा कि 'तुम दोनोंका लड़ना व्यर्थ है इसका पति वही हो जिसे यह चाहे इस प्रकार बन्धुजनोंके द्वारा रोके जानेपर वे दोनों वैरसे विरत हुए देखो ! स्त्रीके कारण परस्पर किस किसका प्रेम भंग नहीं हो जाता है ? ।।१२०-१२२।। उस कन्याने उन दोनोंमें से किसीको नहीं चाहा. इसलिए सुखावती उसे कन्याके आकारमें ही वहाँ ले गयी जहाँ कान्ता, सुकान्ता, रतिकान्ता और कान्तवती थीं ।। १२३ ।। पहले के समान असली रूपमें बैठे हुए कुमारको देखकर कोई कन्या लज्जित हो गयी और कोई प्रीति करने लगी सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियोंके भाव अनेक प्रकारके होते हैं || १२४ || श्रीपाल रातको वहीं सोया, सोते-सोते ही सवेरेके समय सुखावती बड़े प्रयत्नसे उठा ले चली, कुमारने आंख खुलनेपर उससे पूछा कि तू मुझे यहाँ अकेला छोड़कर कहीं चली गयी थी ? तब मुखावतीने कहां कि मैं कहीं नहीं गयी थी, मैं सदा आपके पास ही रही हैं, यहाँ आपको स्त्रीरत्न प्राप्त होगा ऐसा निमित्तज्ञानीने बतलाया है, यहाँ आपको कोई भय नहीं है । आज तक मैं अपने रूपको छिपाये रहती थी परन्तु आज असली रूप में आपसे मिल
१ दातुमिच्छुः । २ श्रीपालस्य । ३ कन्यकायामनभिलाषम् । ४ विमलसेनः । ५ जलाय । जलमानेतुमित्यर्थः । ६ गमयित्वा । अपसार्येत्यर्थ: । ७ श्रपालम् । ८ कृतकन्यकाम् । ९ प्रीतिघातः ल० अ०, प०, स० । १० कन्यकाकारेणैव । ११ पूर्वस्वरूपेण ( निजकुमारस्वरूपेण ) । १२ अनेक परिणामाः । १३ आदिष्टो ल०, ०६० १४ इम्तहितरूपाद्य-ल० । अन्तहितमाच्छादितं यथा भवति तथा। १५ समागममित्यपि पाठः । समागतास्मि ।
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