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आदिपुराणम् श्रेष्टिनैव निकारोऽयं ममाकारीत्यमस्त सः । पापिनामुपकारोऽपि सुभुजङ्गपयापते ॥३१६॥ अन्यधुमैथुनो राज्ञः स्वेच्छया विहरन् वने । खेचरा मुद्रिकामापत् कामरूपविधायिनीम् ॥३१७॥ कराङगुलौ विनिक्षिप्य तां वसोः स्वकनीयसः । संकल्प्य श्रेष्टिनो रूपं सत्यवत्या निकेतनम् ॥३१८॥ प्रवेश्य ( प्रविश्य ) पापधी राजसमीपं स्वयमास्थितः । वसं गृहीतश्रेष्ठीस्वरूपं वीक्ष्य महीपतिः ।३१६। श्रेष्टी किमर्थमायातोऽकाल' इत्यवदत्तदा । अनात्मज्ञोऽयमायातः पापी सत्यवतीं प्रति ॥३२०॥ मदनानलसंतप्त इति मैथुनिकोऽब्रवीत् । तद्वाक्यादपरीक्ष्यैव तमेवाह प्रहन्यताम् ॥३२१॥ श्रेष्ठी तवेति श्रेष्ठी च तस्मिन्नेव दिने निशि । स्वगृहे प्रतिमायोगधारको भावयन् स्थितः ॥३२२॥ पृथुधीस्तमवष्टभ्य गृहीत्वा घोषयन् जने। अपराधमसन्तं'च नीत्वा प्रेतमहीतलम् ॥३२३॥ आरक्षककर हन्तुमर्पयामास पापभाक् । सोऽपि राजनिदेशोऽयमित्यहनहिना दृढम् ॥३२४॥ तस्य वक्षःस्थले तत्र प्रहारो मणिहारताम् । प्राप शीलवतो भक्तस्याहत्परमदेवते ॥३२५॥ दण्डनादपरीक्ष्यास्य महोत्पातः पुरेऽजनि । क्षयः स येन सर्वेषां किं नादुष्टवधान भवेत् ॥३२६॥ नरेशी नागराश्चैतदालोक्य भयविह्वलाः। तमेव शरणं गन्तुं श्मशानाभिमुखं ययुः ॥३२७॥ तदोपसर्गनिर्णाशे विस्मयन्नाकवासिनः । शीलप्रभावं व्यावर्ण्य वणिग्वर्यमपूजयन् ॥३२८॥
छुड़वा दिया ॥३१५।। परन्तु मन्त्रीके पुत्रने समझा कि मेरा यह तिरस्कार सेठने ही कराया है, सो ठीक ही है क्योंकि पापी पुरुषोंका उपकार करना भी साँपको दूध पिलानेके समान है ॥३१६। किसी अन्य दिन वह राजाका साला अपनी इच्छासे वन में घम रहा था, उसे वहाँ एक विद्याधरसे इच्छानुसार रूप बना देनेवाली अंगूठी मिली ॥३१७॥ उसने वह अंगूठी अपने छोटे भाई वसुके हाथकी अंगुलीमें पहना दी एवं उसका सेठका रूप बनाकर उसे सत्यवतीके घर भेज दिया। और पाप बुद्धिको धारण करनेवाला पृथुधी स्वयं राजाके पास जाकर बैठ गया। सेठका रूप धारण करनेवाले वसुको देखकर राजाने कहा कि 'यह सेठ असमयमें यहाँ क्यों आया है ?' उसी समय पृथुधीने कहा कि 'अपने आपको नहीं जाननेवाला यह पापी कामरूपी अग्निसे सन्तप्त होकर सत्यवतीके पास आया है' इस प्रकार उसके कहनेसे राजाने परीक्षा किये बिना ही उसी पृथुधीको आज्ञा दी कि तुम सेठको मार दो। सेठ उस दिन अपने घरपर हो प्रतिमायोग धारण कर वस्तुस्वरूपका चिन्तवन कर रहा था ॥३१८-३२२॥ पृथुधीने उसे वहीं कसकर बाँध लिया और जो अपराध उसने किया नहीं था लोगोंमें उसकी घोषणा करता हुआ उसे श्मशानकी ओर ले गया ॥३२३॥ वहाँ जाकर उस पापीने मारनेके लिए चाण्डालके हाथमें सौंप दिया। चाण्डालने भी यह राजाकी आज्ञा है ऐसा समझकर उसपर तलवारका मजबूत प्रहार किया ॥३२४॥ परन्तु क्या ही आश्चर्य था कि श्री अरहन्त परमदेवके भक्त और शीलवत पालन करनेवाले उस सेठके वक्षःस्थलपर वह तलवारका प्रहार मणियोंका हार बन गया ।।३२५॥ बिना परीक्षा किये उस सेठको दण्ड देनेसे नगर में ऐसा बड़ा भारी उपद्रव हुआ कि जिससे सबका क्षय हो सकता था सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुषोके वधसे क्या नहीं होता है ? ||३२६॥ राजा और नगरके सब लोग यह उपद्रव देखकर भयसे घबड़ाये और उसी सेठकी शरणमें जानेके लिए श्मशानकी ओर दौड़े ॥३२७|| जब सब उसकी शरणमें पहुंचे तब कहीं वह उपद्रव दूर हुआ, स्वर्ग में रहनेवाले देवोंने बड़े आश्चर्य
.१ तिरस्कारः वञ्चना च । २ क्रियते स्म । ३ -मुपकारोऽयं अ०, स०। ४ -माप काम-इ०, अ०, स० । ५ वसुनामधेयस्य । ६ निजानुजस्य । ७ कुबेरप्रियस्य । ८ समीपमागत्य स्थितः । ९ अवेलायाम् । १० बलाकारेण बद्ध्वा । ११ अविद्यमानम् असत्यं वा । १२ हिनस्ति स्म । १३ श्रेष्ठिनः ।