Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 490
________________ आदिपुराणम् १३ आरक्षिणो' निगृह्णीयुर्दत्तं विमतये धनम् । इत्यब्रवीत् स सोऽप्याह गृहीतं न मयेति तत् ॥२९१॥ त्रिमतेरेव तद्गेहं दृष्टवोपायेन केनचित् । दण्डकारणिकैः प्रोक्तं मृत्स्ना पात्रीत्रयोन्मितम् ॥२९२॥ शकृतो भक्षणं मल्लैस्त्रिशन्मुष्ट्यभिताडनम् । सर्वस्वहरणं चैतस्त्रयं जीवितवान्छया ॥ २९३॥ स सर्वमनुभूयायात् प्राणान्ते नारकीं गतिम् । विद्युच्चोरस्त्वया हन्यतामित्यारक्षको नृपात् ॥ २९४॥ लब्धादेशोऽप्यहं हन्मि' नैनं हिंसादिवर्जनम् । प्रतिज्ञातं मया साधोरित्याज्ञां नाकरोदसौ ॥ २९५ ॥ गृहीतोन्कोच'' इत्येष' चोरारक्षकयोर्नृपः । शृङ्खलाबन्धनं रुष्ट्वा कारयामास निर्घृणम् ॥२९६॥ त्वयाऽहं हेतुना केन हतो नेत्यनुयुक्तवान् । प्रतुष्ट्यारक्षकं चोरः सोऽप्येवं प्रत्यपादयत् ॥ २९७ ॥ एतत्पुरममुष्यैव राज्ञः पितरि रक्षति । गुणपाले महाश्रेष्ठी कुबेरप्रियसंज्ञया ॥ २६८ ॥ अत्रैव नाटकाचार्य तनूजा नाट्यमालिका । "आस्थायिकायां भावेन स्थायिनानृत्यदुद्वसम् ॥ २९९॥ तदालोक्य महोपालो बहुविस्मयमागमत् । गणिकोत्पलमालाख्यत् किमत्राश्चर्यमीश्वर ॥ ३००॥ श्रेष्ठिनोsस्य "मिथोऽन्येद्युः प्रतिमायोगधारिणः । सोपवासस्य पूज्यस्य गत्वा चालयितुं मनः ॥ ३०१ ॥ नाशकं तदिहाश्चर्यमित्याख्यद् भूभुजापि सा । गुणप्रिये वृणीष्वेति प्रोक्ता शीलाभिरक्षणम् ॥३०२॥ अभीष्टं मम देहीति तद्दत्तं व्रतमग्रहीत् । अन्यदा तद्गृह" सर्वरक्षिताख्यः समागमत् ॥ ३०३ ॥ ७ ४७२ कहा कि मैंने बाकीका धन विमतिके लिए दे दिया है । जब विमतिसे पूछा गया तब उसने कह दिया कि मैंने नहीं लिया है, इसके बाद कोतवालने वह धन किसी उपायसे विमतिके घर ही देख लिया, उसे दण्ड देना निश्चित हुआ, दण्ड देनेवालोंने कहा कि या तो मिट्टीकी तीन थाली भरकर विष्ठा खाओ, या मल्लोंके तीस मुक्कोंकी चोट सहो या अपना सब धन दो । जीवित रहने की इच्छा से उसने पूर्वोक्त तीनों दण्ड सहे और अन्तमें मरकर नरक गतिको प्राप्त हुआ । राजाने एक चाण्डालको आज्ञा दी कि तू विद्युच्चोरको मार डाल, परन्तु आज्ञा पाकर भी उसने कहा कि मैं इसे नहीं मार सकता क्योंकि मैंने एक मुनिसे हिंसादि छोड़नेकी प्रतिज्ञा ले रखी है ऐसा कहकर उसने जब राजाकी आज्ञा नहीं मानी तब राजाने कहा कि इसने कुछ घूस खा ली है इसलिए उसने क्रोधित होकर चोर और चाण्डाल दोनोंको निर्दयतापूर्वक साँकलसे बँधवा दिया ।। २९० - २९६ ॥ चोरने सन्तुष्ट होकर चाण्डालसे पूछा कि तूने किस कारणसे मुझे नहीं मारा तब चाण्डाल इस प्रकार कहने लगा कि ॥ २९७ ॥ पहले इस नगरकी रक्षा इसी राजाके पिता गुणपाल करते थे और उनके पास कुबेरप्रिय नामका एक बड़ा सेठ रहता था || २९८ || इसी नगरी में नाट्य मालिका नामकी नाटकाचार्यकी एक पुत्री थी। एक दिन उसने राजसभा में रति आदि स्थायी भावों द्वारा शृंगारादि रस प्रकट करते हुए नृत्य किया || २९९ ॥ ..वह नृत्य देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ तब उत्पलमाला नामकी वेश्या बोली कि हे देव, इसमें क्या आश्चर्य है ? एक दिन अत्यन्त शान्त और पूज्य कुबेरप्रिय सेठने उपवासके दिन प्रतिमा योग धारण किया था, उस दिन मैं उनका मन विचलित करनेके लिए गयी थी परन्तु उसमें समर्थ नहीं हो सकी। इस संसार में यही बड़े आश्चर्य की बात है । यह सुनकर राजाने कहा कि " हे गुणप्रिये ! तुझे गुण बहुत प्यारे लगते हैं इसलिए जो इच्छा हो सो माँग ।” तब उसने कहा कि मुझे शीलव्रतकी रक्षा करना इष्ट है यही वर दीजिए । राजाने वह वर उसे १ तलवराः । २ निग्रहं कुर्युः । ३ त्रिमतिनामधेयाय ४ चोरः । विमतिरपि । ५ धनम् । ६ कारणज्ञः 'पुरोहितादिधर्म कारिभिरित्यर्थः । ७ गूथस्य । 'उच्चारावस्करी शमलं शकृत् । पुरीषं उत्कोच गूथवर्चस्कमस्त्री विष्ठाविशी स्त्रियाम् । इत्यभिधानात् । ८ विमतिः । ९ न वधं करोमि । १० 'लञ्च उत्कोच जामिषः, ' इत्यभिधानात् । ११ तलवरः । १२ निष्कृपं यथा भवति तथा । १३ प्रतुष्या अ०, स०, इ०, प० । १४ आस्थाने । १५ श्रेष्ठिनः शमितोऽन्येद्युः ल०, अ०, प०, इ०, स० । ३६ न समर्थोऽभूवमहम् । १७ वाञ्छितं प्रार्थय । १८ उत्पलमालागृहम् ।

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