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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
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रात्रौ तलवरो दृष्ट्वा तं बाह्याऽद्येति तेन तत् । प्रतिपादन वेलायामेवायान्मन्त्रिणः सुतः ॥ ३०४ ॥ नृपतेमैथुनो नाम्ना पृथुधीस्तं निरीक्ष्य सा । मज्जूषायां विनिक्षिप्य गणिका सर्वरक्षितम् ॥ ३०५ ॥ त्वया मदीयाभरणं सत्यवत्यै समर्पितम् । त्वद्भगिन्यै तदानेयमित्याह नृपमैथुनम् ॥ ३०६ ॥ सोऽपि प्राक् प्रतिपाद्यैतद् व्रतग्रहणसंश्रुतेः । प्रातिकूल्यमगादीर्ष्यावान् द्वितीयदिने पुनः ॥३०७॥ साक्षिणं परिकल्प्यैनं मज्जूषास्थं महीपतेः । सन्निधौ याचितो वित्तमसावुत्पलमालया ॥३०८॥ न गृहीतं मयेत्यस्मिन्मिथ्यावादिनि भूभुजा । पृष्टा सत्यवती तस्य पुरस्तान्न्यक्षिपद्धनम् ॥ ३०९॥ मैथुनाय नृपः क्रुध्वा खलोऽयं हन्यतामिति । आज्ञापयत्पदातीन् स्वान् युक्तं तन्न्यायवर्तिनः ॥ ३१०॥ पठन्मुनीन्द्र सद्धर्मशास्त्रसंश्रवणाद् द्रुतम् । अन्येद्युः प्राक्तनं जन्म विदित्वा शसमागते ॥३११॥ यागहस्तिनि मांसस्य पिण्डदानमनिच्छति । तद्वीक्ष्योपायविच्छ्रेष्टी विबुद्ध्यानेकपेङ्गितम् ॥३१२॥ सर्पिर्गुडपयोमिश्रशाल्योदनसमर्पितम् । पिण्डं प्रायोजयत्सोऽपि द्विरदस्तमुपाहरत् ॥ ३५३ ॥ तदा तुष्ट्वा महीनाथो वृणीष्वेष्टं तवेति तम् । प्राह पश्चाद् ग्रहीष्यामीत्यभ्युपेत्य स्थितः स तु ॥ ३१४ ॥ सचिव सुतं दृष्ट्वा नोयमानं शुचा नृपात् । वरमादाय तद्घातात् दुर्वृत्तं तं व्यमोचयत् ॥३१५॥
दिया और उस दिन से उसने शील व्रत ग्रहण कर लिया। किसी दूसरे दिन सर्वरक्षित नामका कोतवाल रात के समय उसके घर गया, उसे देखकर उत्पलमालाने उससे कहा कि आज मैं बाहर की हूँ - रजस्वला हूँ । इधर इन दोनोंकी यह बात चल रही थी कि इतनेमें ही मन्त्रीका पुत्र और पृथुधी नामका राजाका साला आया, उसे देखकर उत्पलमालाने सर्वरक्षितको एक सन्दूक में छिपा दिया और राजाके सालेसे कहा कि आपने जो मेरे आभूषण अपनी बहन सत्यवतीके लिए दिये थे वे लाइए । उसने पहले तो कह दिया कि हाँ अभी लाता हूँ परन्तु बादमें जब उसने सुना कि उसने शील व्रत ले लिया है तब वह ईर्ष्या करता हुआ प्रतिकूल हो गया। दूसरे दिन वह वेश्या सन्दूक में बैठे हुए कोतवालको गवाह बनाकर राजाके पास गयी और वहाँ जाकर पृथुधीसे अपना धन माँगने लगी ॥३०० - ३०८ || पृथुधीने राजाके सामने भी झूठ कह दिया कि मैंने इसका धन नहीं लिया है । जब राजाने सत्यवतीसे पूछा तो उसने सब धन लाकर राजाके सामने रख दिया || ३०९ || यह देखकर राजा अपने सालेपर बहुत क्रोधित हुआ, उसने अपने नौकरोंको आज्ञा दी कि यह दुष्ट शीघ्र ही मार डाला जाय । सो ठीक है क्योंकि न्याय-मार्ग में चलनेवालेको यह उचित ही है ॥ ३१० ॥ किसी एक दिन पाठ करते हुए मुनिराजसे धर्मशास्त्र सुनकर राजाके मुख्य हाथीको अपने पूर्व भवका स्मरण हो आया, वह अत्यन्त शान्त हो गया और उसने मांसका पिण्ड लेना भी छोड़ दिया, यह देख उपायोंके जानने
और दूध मिला हुआ शालि चावलोंका
वाले सेठने हाथोकी सब चेष्टाएँ समझकर घी, गुड़ भात उसे खाने के लिए दिया और हाथीने भी वह शुद्ध भोजन खा लिया ॥३११-३१३॥ उस समय सन्तुष्ट होकर राजाने कहा कि जो तुम्हें इष्ट सो माँगो । सेठने कहा - अच्छा यह वर अभी अपने पास रखिए, पीछे कभी ले लूँगा, ऐसा कहकर वह सेठ सुखसे रहने लगा ।। ३१४॥
उसे देखकर सेठको बहुत शोक
उस दुराचारी मन्त्रीके पुत्रको
इसी समय मन्त्रीका पुत्र मारनेके लिए ले जाया जा रहा था हुआ और उसने राजासे अपना पहलेका रखा हुआ वर माँगकर
१ तलवरेण सह । २ अद्य याहीत्येतत्प्रतिपादन । ३ आनयामीत्यनुमत्य । ४ प्रसङ्गापातकथान्तरमिह ज्ञातव्यम् ।
५ नीतम् । ६ भुङ्क्ते स्म । ७ तम् ल०, अ०, प०, स०, इ० । ८ मन्त्रिणः पुत्रम् । पृथुमतिम् ।
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