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षद् चत्वारिंशत्तमं पर्व
४६५ 'अवोधद्वेषरागात्मा संसारस्तद्विपर्ययः। मोक्षश्चेद वीक्षितो विद्भिः कः क्षेपो मोक्षसाधन ॥२१३॥ यदि देशादिसाकल्ये न तपस्तत्पुनः कुतः । मध्येऽर्णवं यतो वेगात् कराग्रच्युतरत्नवत् ॥२१४॥ "आत्मँस्त्वं परमात्मानमात्मन्यात्मानमात्मना । हित्वा दुरात्मतामात्मनीन ध्वनि चरन् कुरु ॥२१॥ इति संचिन्तयन् गत्वा पुरं परमतत्ववित् । सुवर्णवर्मणे राज्यं साभिषेक वितीर्य सः ॥२१६॥ अवतीय' महीं प्राप्य श्रीपुरं श्रीनिकेतनम् । दीक्षां जैनेश्वरी प्राप श्रीपालगुनगंनिधी ॥२१॥ परिग्रहग्रहान्मुक्तो दीक्षित्वा स तपोऽशुभिः । हिरण्यवर्मा 'घमांशुनिर्मलो उपटान नराम् ॥२८॥ प्रभावती च तन्मात्रा "गुणवत्यास्ततोऽगमत् । कुतश्चन्द्रमसं मुक्या चन्द्रिकायाः स्थितिः पृथक् ॥ सद्वृत्तस्तपसा दीप्तो दिगम्बरविभूषणः । निस्संगो व्योमगाम्येकविहारी विश्व इन्दितः ॥२२०॥ नित्योदयो बुधाधीशो विश्वदृश्वा विरोचनः । स कदाचित् गा मागच्छन्मोदयन परीकिणीम्॥२२१॥ कहना ही क्या है ? ॥२१२॥ यह संसार अज्ञान, द्वेप और राग स्वरूप है तथा मोक्ष इससे विपरीत है अर्थात् सम्यग्ज्ञान और समता स्वरूप है । यदि विद्वान् लोग ऐसा देखते रहें तो फिर मोक्ष होनेमें देर ही क्या लगे ? ॥२१३॥ जिस प्रकार वेगसे जाते हुए पुरुषके हाथसे बीच समुद्रमें छूटा हुआ रत्न फिर नहीं मिल सकता है उसी प्रकार देश-काल आदिकी सामग्री मिलनेपर भी यदि तप नहीं किया तो वह तप फिर कैसे मिल सकता है ? ।।२१४। इसलिए हे आत्मन्, तू आत्माका हित करनेवाले मोक्षमार्गमें दुरात्मता छोड़कर अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मामें परमात्मा रूप अपने आत्माको ही स्वीकार कर ॥२१५॥ इस प्रकार चिन्तवन करते हुए परम तत्त्वके जाननेवाले राजा हिरण्यवर्माने अपने नगरमें जाकर अपने पुत्र सुवर्णवर्माके लिए अभिषेकपूर्वक राज्य सौंपा और फिर विजयार्द्ध पर्वतसे पृथ्वीपर उतरकर लक्ष्मीके गृहस्थरूप श्रीपुर नामके नगरमें श्रीपाल गुरुके समीप जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।२१६२१७॥ परिग्रहरूपी पिशाचसे युक्त हो दोक्षा धारण कर सूर्यके समान निर्मल हुआ वह राजा हिरण्यवर्मा तपश्चरणरूपी किरणोंसे बहुत ही देदीप्यमान हो रहा था ॥२१८॥ प्रभावतीने भी हिरण्यवर्माकी माता-शशिप्रभाके साथ गुणवती आर्यिकाके समीप तप धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमाको छोड़कर चाँदनीकी पृथक् स्थिति भला कहाँ हो सकती है ? ॥२१९॥ वे हिरण्यवर्मा मुनिराज ठीक सूर्यके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सद्वृत्त अर्थात् गोल है उसी प्रकार वे मुनिराज भी सवृत्त अर्थात् निर्दोष चारित्रको धारण करनेवाले थे। जिस प्रकार सूर्य तप अर्थात् गरमीसे देदीप्यमान रहता है उसी प्रकार मुनिराज भी तप अर्थात् अनशनादि तपश्चरणसे देदीप्यमान रहते थे, जिस प्रकार सूर्य दिगम्बर अर्थात् दिशा और आकाशका आभूषण है उसी प्रकार मुनिराज भी दिगम्बर अर्थात् दिशारूप वस्त्रको धारण करनेवाले निर्ग्रन्थ मुनियोंके आभूषण थे, जिस प्रकार सूर्य निःसंग अर्थात् सहायतारहित अकेला होता है उसो प्रकार मुनिराज भी निःसंग अर्थात् परिग्रहरहित थे, जिस प्रकार सूर्य आकाशमें गमन करता है उसी प्रकार चारणऋद्धि होनेसे मुनिराज भी आकाशमें गमन करते थे, जिस प्रकार सूर्य अकेला ही घूमता है उसी प्रकार मुनिराज भी अकेले ही घूमते थे - एकविहारी थे, जिस प्रकार सूर्यको सब वन्दना करते हैं उसी प्रकार मुनिराजको भी सब वन्दना १ अज्ञान । २ बुधैः । ३ कालयापना। ४ सुदेशकुलजात्यादिसामग्र्ये । ५ गच्छतः । ६, आत्मन् स्वं ल० । ७ आत्महिते । ८ मार्गे। ९ वरं ल०, प० । रतिं कुरु अ०, स०। १० धान्यकमालवनात् निजनगरं प्राप्य । ११ विजयाचिलात् भुवं प्राप्य । १२ श्रीगृहम् । १३ आदित्यः । १४ हिरण्यवर्मणो जनन्या शशिप्रभया सह । १५ गुणवत्यापिकायाः समीपे । १६ रविपक्षे दिशश्च अम्बरं च विभूषयतः ति । '१७ गगनचारिणः । १८ सर्वकालोत्कृष्ट चोधः । १९ जगच्चक्षुः । २० रविरिव ।