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आदिपुराणम अध्रुवत्वं गुणं मन्ये भोगायुः 'कायसंपदाम् । ध्रुवेप्वेषु कुतो मुक्तिविना मुक्तेः कुतः सुखम् ॥२०४॥ विसम्भजननैः पूर्व पश्चात् प्राणार्थहारिभिः। पारिपन्थिकसङ्काशेर्विपयैः कस्य नापदः ॥२०५॥ नदुःखस्यैव माहात्म्यं स्यात् सुखं विषयैश्च यत् । यन्कारबल्लिका स्वादुःप्राभवं ननु तत्क्षुधः ॥२०६॥ संकल्पसुग्घसंतोषाद् विमुखस्वात्मजात् सुखान् । गुञ्जाग्नितापसंतुष्टशाखामृगसमी जनः ॥२०७॥ पदास्ति निर्जरा नासौ युक्त्यै बन्धच्युतेविना। तच्च्युतिश्च हतबन्धहेतोस्तनद्धतौ यते ॥२८॥ केन मोक्षः कथं जीव्यं कुतः सौख्यं क्व वा मतिः । 'परिग्रहाग्रहग्राहगृहीतस्य भवार्णवे ॥२०१॥ किं भव्यः किमभन्योऽयमितिसंशेरत बुधाः। ज्ञात्वाऽप्यनित्यतां लक्ष्मीकटाक्षशरशायिते ॥२१०॥ अयं कायद्रुमः ' कान्ताव्रततीततिवेष्टितः। जरित्वा जन्मकान्तारकालाग्निग्रासमाप्स्यति ॥२११॥ यदि धर्मकणादित्थं निदानविषषितात् । सुखं धर्मामृताम्मोधिमज्जनेन किमुच्यते ॥२१२॥
भोग, आयु, काल और सम्पदाओंमें जो अस्थिरपना है उसे मैं एक प्रकारका गुण ही मानता हूँ क्योंकि यदि ये सब स्थिर हो गये तो मुक्ति कैसे प्राप्त होगी? और मुक्तिके बिना सुख कैसे प्राप्त हो सकेगा ? ।। २०४ ।। पहले तो विश्वास उत्पन्न करनेवाले और पीछे प्राण तथा धनका अपहरण करनेवाले शत्रु तुल्य इन विषयोंसे किसे भला आपदाएं प्राप्त नहीं होती हैं ? ॥ २०५ ॥ इन विषयोंसे जो सुख होता है वह दुःखका हो माहात्म्य है क्योंकि जो करेला मीठा लगता है वह भूखका ही प्रभाव है ।। २०६ ॥ यह जीव कल्पित सुखोंसे सन्तुष्ट होकर आत्मासे उत्पन्न होनेवाले वास्तविक सुखसे विमुख हो रहा है इसलिए यह जीव गुमचियोंके तापनेसे सन्तुष्ट होनेवाले वानरके समान हैं। भावार्थ - जिस प्रकार गुमचियोंके तापनेसे बन्दरकी ठण्ड नहीं दूर होती है उसी प्रकार इन कल्पित विषयजन्य सुखोंसे प्राणियोंकी दुःख-रूप परिणति दूर नहीं होती है ? ॥२०७॥ इस जीवके निर्जरा तो सदा होती रहती है परन्तु बन्धका अभाव हुए बिना वह मोक्षका कारण नहीं हो पाती है, बन्धका अभाव बन्धके कारणोंका नाश होनेसे हो सकता है इसलिए मैं बन्धके कारणोंका नाश करने में ही प्रयत्नशील हूँ॥२०८॥ इस संसाररूपी समुद्रमें जिन्हें परिग्रहके ग्रहण करने रूप पिशाच लग रहा है उन्हें भला मोक्ष किस प्रकार मिल सकता है ? उनका जीवन किस प्रकार रह सकता है ? उन्हें सुख कहाँसे मिल सकता है और उन्हें बुद्धि हो कहाँ उत्पन्न हो सकती है ? ॥ २०९ ॥ लक्ष्मीके कटाक्षरूपी बाणोंसे सुलाये हुए ( नष्ट हुए ) पुरुष में अनित्यताको जानकर भी विद्वान् लोग 'यह भव्य है ? अथवा अभव्य है ?' इस प्रकार व्यर्थ संशय करने लगते हैं ॥ २१० ॥ स्त्रीरूपी लताओंके समूहसे घिरा हुआ यह शरीररूपी वृक्ष संसाररूपी अटवीमें जीर्ण होकर कालरूपी अग्निका ग्रास हो जायगा ॥२११।। जब कि निदानरूपी विषसे दूषित कर्मके एक अंशसे मुझे ऐसा सुख मिला है तब धर्मरूपी अमृतके समुद्रमें अवगाहन करनेसे जो सुख प्राप्त होगा उसका तो
१ काल - ल० । २ विश्वासजनकैः । ३ शत्रुसदृशैः । ४ न विपत्तयः । ५ कटुकास्वादः शाकविशेषः । कारवेल्लिकं स्वादु ५०, द०, स०, अ०, ल०। ६ बुभुक्षायाः । ७ विमुखश्चात्मजान् ल०, ५०, इ०, अ० । ८ तत् कारणात् । ९ यत्नं करोमि । १० जीवनम् । ११ परिग्रहस्वीकारनक्रस्वीकृतस्य । १२ विशिष्टेष्टपरिणामेन कि भविष्यति । १३ संशयं कुर्वन्ति । १४ अपाङ्गदर्शनवाणतनूकृतशरीरे पुंसि । १५ भार्यालता। १६ जीर्णीभूत्वा । १७ यमदावाग्निः । १८ धर्मलेशात् । १९ कतिजन्मनि कुबेरमित्रेण स्वेन कृतदानपुण्यस्यकांशः कपोतस्य दत्तः विद्याधरविमानं विलोक्य कपोतः श्रेष्ठिदत्तपुण्यांशात् मम विद्याधरत्वं भवत्विति कृतनिदानविषदूषितत्वात् ।
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धनके कारण है।