Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 485
________________ ४६७ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व मायया नास्मि शान्तेति तद्वाक्यात् खेदमागतौ । आह तु स्त्रपतौ याते वन शक्तिमदौषधम् ॥२३०॥ . गान्धारी बन्धकीभाव मुपेत्य स्मरविक्रियाम् । दर्शयन्ती निरीक्ष्याह वणिग्वयों दृढव्रतः ॥२३१॥ . अहं वर्षवरो वेत्सि न किं मामित्युपायवित् । व्यधाद् विरक्तचित्तां तां तदेव हि धियः फलम् ॥२३२॥ तदानीमागते पत्यौ स्वे स्वास्थ्यमहमागता । पूर्वोषधप्रयोगेत्युक्त्वाऽगात् सपतिः पुरम् ॥२३३॥ दयितान्तकुबेराख्यो मित्रान्तश्च कुबेरवाक् । परः कुबेरदत्तश्च कुबेरश्चान्तदेववाक् ॥२३॥ कुबेरादिप्रियश्चान्यः पञ्चते संचितश्रताः । कलाकौशलमापन्नाः संपन्ननवयौवनाः ॥२३॥ एतैः स्वसूनुमिः सार्धमारुह्य शिविका वनम् । धृत्वा कुबे रश्रीगर्म मां विहाँ समागताम् ॥२३६॥ दृष्ट्वा कदाचिद् गान्धारी पृथक् पृष्टवती पुमान् । त्वच्छ्रेष्ठी'नेति तत्सत्यमुत नेत्यन्ववादिशम्॥२३७॥ तत्सत्यमेव ' मत्तोऽन्यां प्रत्यसौ न पुमानिति । तदाकर्ण्य विरज्यासौ सपतिः संयमं श्रिता ॥२३८॥ पुनस्तत्रागता दृष्टा दीक्षेयं केन हेतुना । तवेति सा मया पृष्टा प्रप्रणम्य प्रियोक्तिमिः ॥२३९॥ श्रेष्ट्येव ते तपोहेतुरिति प्रत्यब्रवीदसौ। निगूढं तद्वचः श्रेष्टी श्रुत्वाऽऽगत्य पुरः स्थितः ॥२४०॥ मामजैषीत् सखाऽसौ में 'क्वायेति परिपृष्टवान् । सोऽपि मत्कारणेनैव गृहीत्वेहागमत्तपः ॥२४॥ इति तद्वचनाच्छेष्ठी नृपश्चाभ्येत्य तं मुनिम् । वन्दित्वाधर्ममापृच्छय काललब्ध्या महीपतिः ॥२४२॥ शान्ति नहीं हुई है, यह सुनकर उसके पति रतिषणको बहुत दुःख हुआ। वह अधिक शक्तिवाली औषधि लानेके लिए वनमें चला गया, इधर उसके चले जानेपर गान्धारीने कुलटापन धारण कर कामकी चेष्टाएँ दिखायीं, यह देखकर उपायको जाननेवाले और अपने व्रतमें दृढ़ रहनेवाले सेठ कुबेरकान्तने कहा कि अरे, मैं तो नपुंसक हूँ - क्या तुझे मालूम नहीं ? ऐसा कहकर सेठने उसे अपनेसे विरक्तचित्त कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धि का फल यही है ॥२२९२३२॥ इतने में ही उसका पति वापस आ गया, तब गान्धारीने कह दिया कि मैं पहले दी हुई औषधिके प्रयोगसे ही स्वस्थ हो गयी हूँ ऐसा कहकर वह पतिके साथ नगरमें चली गयी ॥२३३।। कुबेरदयित, कुबेरमित्र, कुबेरदत्त, कुबेरदेव और कुबेरप्रिय ये पाँच मेरे पुत्र थे। ये पाँचों ही समस्त शास्त्रोंको जाननेवाले, कला-कौशल में निपुण तथा नव यौवनसे सुशोभित थे। किसी एक दिन जब कि कुबेरश्री कन्या मेरे गर्भमें थी तब मैं अपने पूर्वोक्त पुत्रोंके साथ पालकी में बैठकर वनमें विहार करनेके लिए गयी थी उसी समय गान्धारीने मुझे देखकर और अलग ले जाकर मुझसे पूछा कि 'आपके सेठ पुरुष नहीं हैं' क्या यह बात सच है अथवा झूठ ? तब मैंने उत्तर दिया कि बिलकुल सच है क्योंकि वे मेरे सिवाय अन्य स्त्रियोंके प्रति पुरुष नहीं हैं यह सुनकर उसने विरक्त हो अपने पतिके साथ-साथ संयम धारण कर लिया ॥२३४-२३८|| किसी एक दिन वह गान्धारी आर्यिका यहाँ फिर आयी तब मैंने दर्शन और प्रणाम कर प्रिय वचनों-द्वारा पूछा कि 'आपने यह दीक्षा किस कारणसे ली है ?' उसने उत्तर दिया था कि 'मेरे तपश्चरणका कारण तेरा सेठ ही है, सेठ भी गुप्तरूपसे यह बात सुनकर सामने आकर खड़े हो गये और पूछने लगे कि जिसने मुझे जीत लिया है ऐसा मेरा मित्र आज कहाँ है तब गान्धारी आयिकाने कहा कि वे भी मेरे ही कारण तप धारण कर यहाँ पधारे हैं. ॥२३९-२४१।। यह सुनकर सेठ और राजा दोनों ही उन मुनिराजके समीप गये और दोनोंने १ -मागते ल० । तौ द्वौ खेदमानतौ अ०, स०। २ विजया वनम् । ३ विषापहरणसामर्थ्यवन्महौषधम् । ४ गान्धारी ल० । ५ कुलटात्वम् । ६ दर्शयन्ती ल०। ७ वर्षधरः ल० । षण्डः । ८ पतिसहिता। ९ कुबेरदेवः । १० कुबेरश्रियः संबन्धि गर्भम् । ११ एकान्ते । १२ पुमान् न भवतीति । १३ असत्यं वा । १४ मत् ।' १५ गान्धारी। १६ पुण्डरीकिण्याम् । १७ जितवती। १८ मम मित्रं रतिषेणः । १९ कुत्र तिष्ठतीति । २० गतस्तपः ल०, अ०, प०, स० । २१ लोकपालः ।

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