Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 479
________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४६१ प्रभावत्या च पृष्टोऽसौ स्वं पूर्वभयवृत्तकम् । अभाषत मुनेश्चैवमनुग्रहधिया तयोः ॥१६९॥ तृतीयजन्मनीतोऽत्र संभतौ वणिजां कुले । रतिवेगा सुकान्तश्च प्राक् मृणालवतीपुरे ॥१७॥ भर्तृ भार्याभिसंबधं संप्राप्पारिभयाद् गतौ । कृत्वाऽनुमोदनं शक्तिषेणदाने सपुण्यको ॥१७१॥ पारावतभवे चाप्य धर्म जातौ युवामिति । विधाय पितरौ वैश्यजन्मनोर्याविहापि तौ ॥१७२॥ तृतीयजन्मनो युष्मद्गुरवोऽहं च संगताः । रतिषेणगुरोः पावें गृहीतप्रोषधाश्चिरम् ॥१७३॥ जिनेन्द्रभवने भक्त्या नानोपकरणैः सदा । विधाय पूजां समजायामहीह खगाधिपाः ॥१७४॥ पिताऽहं भवदेवस्य रतिवर्माभिधस्तदा । भूत्वा श्रीधर्मनामाऽतः संयमं प्राप्य शुद्धीः ॥१७५॥ चारणत्वं तृतीयं च ज्ञान प्रापमिहेत्यदः । श्रत्वा मुनिवचः प्रीतिमापयेतान्तरां च तो' ॥१७६॥ एवं सुखेन यात्येषांकाले वायुरथः पृथुम् । विशरारु समालोक्य स्तनयित्नु प्रतिक्षणम् ॥१७७॥ 'विश्वं विनश्वरं पश्यन् शश्वच्छाश्वतिकी मतिम् । जनः करोति सर्वत्र दुस्तरं किमिदं तमः ॥१७८॥ इति याथात्म्यमासाद्य दत्वा राज्यं विरज्य सः। मनोरथाय नैस्संग्यं प्रपित्सुरभवत्तदा ॥१७९॥ आदित्यगतिमभ्येत्य प्रीत्या सर्वेऽपि बान्धवाः । प्रभावतीसुता देया भवतेयं रतिप्रभा ॥१०॥ वर्माने परमावधि ज्ञानको धारण करनेवाले चारणमुनि देखे, प्रभावतीने उनसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त पूछा, मुनिराज भी अनुग्रह बुद्धिसे उन दोनोंके पूर्वभवका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगे ॥१६८-१६९।। कि तुम दोनों इस जन्मसे तीसरे जन्ममें मृणालवती नगरीके वैश्य कुलमें रतिवेगा तथा सुकान्त हुए थे ॥१७०॥ स्त्री पुरुषका सम्बन्ध पाकर तुम दोनों शत्रुके भयसे भागकर शक्तिषेणकी शरण गये थे। वहाँ शक्तिषणने मुनिराजके लिए जो आहार दान दिया था उसकी अनुमोदना कर तुम दोनोंने पुण्यबन्ध किया था, उसके बाद कबूतर-कबूतरीके भवमें धर्म लाभ कर यहाँ विद्याधर-विद्याधरी हुए हो। तुम दोनोंके वैश्य जन्मके जो माता-पिता थे वे ही इस जन्मके भी तुम्हारे माता-पिता हुए हैं। तीसरे जन्मके तुम्हारे माता-पिता तथा मैंने मिलकर एक साथ रतिषेण गुरुके समीप प्रोषध व्रत लिया था, और उसका चिरकाल तक पालन करते हुए श्रीजिनेन्द्रदेवके मन्दिरमें भक्तिपूर्वक अनेक उपकरणोंसे सदा पूजा की थी उसीके फलस्वरूप हमलोग यहाँ विद्याधर हुए हैं। मैं पूर्वभवमें रतिवर्म नामका भवदेवका पिता था, अब श्रीधर्म नामका विद्याधर हुआ हूँ, मैंने शुद्ध हृदयसे संयम धारण कर चारण ऋद्धि और तीसरा अवधि ज्ञान प्राप्त किया है । इस प्रकार मुनिराजके वचन सुनकर हिरण्यवर्मा और प्रभावती दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥१७१-१७६॥ इस तरह इन सबका समय सुखसे व्यतीत हो रहा था कि किसी एक समय प्रभावतीके पिता वायुरथ विद्याधरने प्रत्येक क्षण नष्ट होनेवाला मेघ देखकर ऐसा विचार किया कि यह समस्त संसार इसी प्रकार नष्ट हो जानेवाला है, फिर भी लोग इसे स्थिर रहनेवाला समझते हैं, यह अज्ञानरूपी घोर अन्धकार सब जगह क्यों छाया हुआ है ? इस प्रकार यथार्थ स्वरूपका विचार कर विरक्त हो मनोरथ नामक पुत्रके लिए राज्य दे दिया और स्वयं निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करनेकी इच्छा करने लगे ॥१७७-१७९॥ उसी समय वायुरथके सभी भाई-बन्धुओंने बड़े १ स्वपूर्व-अ०, ५०, इ०, स०, ल०। २ दम्पतिसंबन्धम् । ३ भवदेवभयात् । ४ पलायितौ। ५ प्राप्य । ६ श्रीदत्तविमलश्रियौ। अशोकदेवजिनदत्ते च । ७ युवयोः पितरः। श्रीदत्तविमलश्री-अशोकदेवजिनदत्ताः । ८ भवदेवस्य पिता रतिवर्मा । ९ जाताः स्म। १० श्रोधर्मखगाधिपतिः । ११ हिरण्यवर्माप्रभावत्यो । १२ वायुरथादीनाम् । १३ विनश्वरशीलम् । १४ मेघम् । 'अभ्रं मेघो वारिवाहः स्तनयित्नुर्बलाहकः' इत्यभिधानात् । १५ पुत्रमित्रकलत्रस्रकचन्दनादिकम् । १६ अज्ञानम् । १७ विरक्तो भूत्वा। १८ प्राप्तुमिच्छुः । १९ वायुरथस्य बन्धुजनाः ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566