Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 466
________________ ४४८ आदिपुराणम् कदाचिद राजगेहागतेन वैश्येशिना स्वयम् । स्नेहेन सस्मितालापैः स्वहस्तेन समुद्धतः ॥२३॥ कदाचित् कामिनीकान्तकराजार्पितशर्करा-संमिश्रितान् सुशालीयतण्डुलानमिभक्षयन् ॥२४॥ कदाचिच्छेष्टिनोद्दिष्ट हेतुदृष्टान्तपूर्वकम् । अहिंसालक्षणं धर्म भावयन् प्राणिनेहितम् ॥२५॥ कदाचिद् भवनायात तिपादसरोजजम् । रेणुजालं निराकुर्वन् पक्षाभ्यां प्रत्युपागतः ॥२६॥ स कदाचिद् गतिः का स्यात् पापापापात्मनामिति । कुतूहलेन पृष्टः सन् जनैस्तुण्डेन निर्दिशन् ॥२७॥ अधोभागमथोवं च मौनीवागमपारगः । क्षयोपशममाहात्म्यात्तियंचोऽपि विवेकिनः ॥२८॥ क्रीडनानाप्रकारेण कान्तया रतिषेणयाँ । सार्धमेवं चिरं तत्र सुखं कालमजीगमत् ॥२६॥ असौ रतिवरः कान्तस्त्वमहं सा तब प्रिया । रतिषणा भवावर्ते जन्तुः किं किं न जायते ॥३०॥ सुतः कुबेरमित्रस्य धनवत्याश्च पुण्यवान् । जातः कुबेरकान्ताख्यः कुबेरो वा परः सुधीः ॥३१॥ द्वितीय इव तस्यासीत् प्राणः सोऽनुचराग्रणीः । प्रियसेनाह्वयो बाल्यादारभ्य कृतसंगतिः ॥३२॥ आजन्मनः कुमारस्य कामधेनु रनुत्तमा । मनोऽभिलषितं दुग्धे समस्तसुखसाधनम् ॥३३॥ क्षेत्रं निष्पादयत्येकं गन्धशालिमनारतम् । इशूनमृतदेशीयानन्यत् स्थूलांस्तनुत्वचः ॥३॥ स्वयं मनोहरं वीणा दन्ध्वनीति निरन्तरम् । तत्स्नानसमये सर्वरोगस्वेदमलापहम् ॥३५॥ श्रेष्ठ था ॥२२॥ कभी तो राजभवनसे आये हुए सेठ कुबेरमित्र बड़े स्नेहसे हँस-हँसकर वार्तालाप करते हुए उसे अपने हाथपर उठा लेते थे, कभी वह स्त्रियोंके सुन्दर करकमलों द्वारा दिये हुए और शक्कर मिले हुए उत्तम धानके चावलोंको खाता था, कभी सेठके द्वारा हेतु तथा दृष्टान्तपूर्वक कहे हुए प्राणिहितकारी अहिंसा धर्मका चिन्तवन करता था, कभी भवनमें आये हुए मुनिराजके चरणकमलोंकी धूलिको उनके समीप जाकर अपने पंखोंसे दूर करता था, जब कभी कोई कुतूहलवश उससे पूछता था कि पापी तथा पुण्यात्मा लोगोंकी क्या गति होती है ? तब वह शास्त्रोंके जाननेवाले किसी मौनी महाशयके समान इशारेसे चोंचके द्वारा नीचेका भाग दिखाता हुआ पापी लोगोंकी गति कहता था और उसी चोंचके द्वारा ऊपरका भाग दिखलाता हुआ पुण्यात्मा लोगोंकी गति कहता था सो ठीक ही है क्योंकि क्षयोपशमके माहात्म्यसे तिर्यंच भी विवेकी हो जाते हैं ॥२३-२८॥ इस प्रकार वह कबूतर अपनी रतिषेणा नामको कबूतरीके साथ नाना प्रकारकी क्रीडा करता हुआ वहाँ सुखसे •समय बिताता था ।।२९।। सुलोचना कह रही है कि वह रतिवर ही आप मेरे पति हैं और वह रतिषेणा ही मैं आपकी प्रिया हूँ। देखो इस संसाररूपी आवर्तमें भ्रमण करता हुआ यह जीव क्या-क्या नहीं होता है ? ॥३०॥ उस कुबेरदत्त सेठके धनवती स्त्रीसे एक कुबेरकान्त नामका पुत्र हुआ था जो कि अतिशय पुण्यवान्, बुद्धिमान् तथा दूसरे कुबेरके समान जान पड़ता था ॥३१॥ उस कुबेरकान्तका एक प्रियसेन नामका श्रेष्ठ मित्र था जो कि बाल्य अवस्थासे ही उसके साथ रहता था और उसके दूसरे प्राणोंके समान था ॥३२॥ एक अत्यन्त उत्तम कामधेनु कुमार कुबेरकान्तके जन्मसे ही लेकर उसकी इच्छाके अनुकूल सुखके सब साधनोंको पूरा करती थी। वह कामधेनु प्रति दिन एक खेत तो सुगन्धित धान्यका उत्पन्न करती थी और एक खेत अमृतके समान मोठे, पतले छिलकेवाले बड़े-बड़े ईखोंका उत्पन्न करती थी ॥३३-३४॥ इसके सिवाय वही कामधेनु कुमारके सामने निरन्तर मनोहर वीणा बजाती थी, और उसी कामधेनुके प्रतापसे उसके स्नानके १ द्दिष्ट-ल० । २ धूलिसमूहम् । ३ अपसारयन् । ४ अभिमुखागतः सन् । ५ पारावतः । ६ अधार्मिकाणां धार्मिकाणाम् । ७ रतिषणसंज्ञया निजभार्यया पारावत्या । ८ गमयति स्म। ९ धनद इव । १० मित्र । ११ जननकालादारभ्य । १२ न विद्यते उत्तमा यस्याः सकाशात् इत्यनुत्तमा, अनुपमेत्यर्थः । १३ सुधासदृशान् । २१४ परं द्वितीयं क्षेत्रम् । १५ भृशं ध्वनति ।

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