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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
४५१ राजा कदाचिदबाजीद घटया ललिताख्यया । विहारार्थ वनं तत्र वाप्यामालोक्य विस्मयात् ॥५८॥ : तटशुष्कांघ्रिपासन्नशाखाग्रस्थपरिस्फुरन् । परार्ध्यवायसानीतपद्मरागमणिप्रभाम् ॥५९॥ . मणिं मत्वा प्रविश्यान्तनेषु कनाप्य लम्भ्यसो । भ्रान्त्या प्रवर्तमानानां कुतः क्लेशाद् विना फलम् ॥६०॥ चिरं निरीक्ष्य निविण्णाः सर्वे ते पुरमागमन् । बुद्धिर्नाग्रेसरी यस्य न निर्बन्धः फलत्यसौ ॥६॥ कदाचिद् भूपतिः श्रेष्ठिसुतया रक्तचित्तया । वसुमत्या विभावर्यामात्मसौमाग्यसूचिना ॥६२॥ क्रमेण कुङ्कुमाण ललाटे स्फुटमङ्कितः' । कान्ताः किं किं न कुर्वन्ति स्वमागपतिते नरे ॥६३॥ पट्टबन्धात् परं मत्वा तत्क्रमाकं महीपतिः । प्रातरास्थानमध्यास्य मन्त्र्यादीनित्यबूबुधत् ॥६॥ ललाटे यदि केनापि राजा पादेन ताडितः । कर्तव्यं तस्य किं वाच्यं ततो मन्त्र्यब्रवीदिदम् ॥६५॥ पट्टात् ललाटो नान्येन स्पृश्यः स यदि ताडितः । पादेन केनचिद् वध्यः स प्राणान्तमिति स्फुटम् ॥६६॥ तदाकावधूयैनं स्मितेनाइय मातुलम् । नृपोऽप्राक्षीत् स चाहैतत् प्रस्तुतं प्रस्तुतार्थवित् ॥६७॥ तस्य पूजा विधातव्या सर्वालंकारसंपदा । इति तद्वचनात्तष्ट्वा मणिवार्ता न्यवेदयत् ॥६॥
समान होता है। राजाके वचन सुनकर सेठ भो दुःख सहित शीघ्र ही अपने घर चला गया ॥५७॥ किसी एक दिन राजा ललितघट नामक हाथीपर बैठकर विहार करनेके लिए वनमें गया, उस वनमें एक बावड़ी थी, उसके तटपर एक सूखा वृक्ष था, उसकी एक शाखा बावड़ीके निकटसे निकली थी, उस शाखाके अग्रभागपर एक कौवेने कहींसे देदीप्यमान बहमल्य पद्मराग मणि लाकर रख दी। बावड़ीमें उस मणिकी कान्ति पड़ रही थी, राजा तथा उसके सब साथियोंने उस कान्तिको मणि समझा और यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ - उस मणिको लेमेके लिए सब बावड़ीके भीतर घुसे परन्तु उनमें से वह मणि किसीको भी नहीं मिलो सो ठीक ही है क्योंकि भ्रान्तिसे प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंको क्लेशके सिवाय और क्या फल मिल सकता है ॥५८-६०॥ उन सब लोगोंने बावड़ीमें वह मणि बहुत देर तक देखी परन्तु जब नहीं मिली तब उदास हो अपने नगरको लौट आये सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रयत्नमें बुद्धि अग्रेसर नहीं होती वह प्रयत्न कभी सफल नहीं होता ॥६१॥ किसी समय प्रेमसे भरी हुई वसुमती नामकी सेठकी पुत्रीने रात्रिके समय अपने सौभाग्यको सूचित करनेवाले तथा कुंकुमसे गीले अपने पैरसे राजाके ललाटमें स्पष्ट चिह्न बना दिया सो ठोक ही है क्योंकि पुरुषके अपने अधीन होनेपर स्त्रियाँ क्या-क्या नहीं करती हैं ? ॥६२-६३॥ राजाने उस पैरके चिह्नको पट्टबन्धसे भी अधिक माना और सबेरा होते ही सभामें बैठकर मन्त्री आदिसे इस प्रकार पूछा कि यदि कोई पैरसे राजाके ललाटपर ताड़न करे तो उसका क्या करना चाहिए ? यह सुनकर फल्गुमति मन्त्रीने कहा कि राजाका जो ललाट पट्टके सिवाय किसी अन्य वस्तुके द्वारा छुआ भी नहीं जा सकता उसे यदि किसीने पैरसे ताड़न किया है तो उसे प्राण निकलने तक मारना चाहिए ।।६४-६६॥ यह सुनकर राजाने उस मन्त्रीका तिरस्कार किया तथा मन्द-मन्द हँसीके साथ मामा कुबेरमित्रको बुलाकर उनसे सब हाल पूछा। प्रकृत बातको जाननेवाला 'कुबेरमित्र कहने लगा कि जिसने आपके शिरपर पैरसे प्रहार किया है उसकी सब प्रकारके आभूषणरूपी सम्पदासे पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार उसके वचनोंसे सन्तुष्ट होकर राजाने वनविहारके समय बावड़ी में दिखनेवाले मणिकी
१. अगमत् । प्राबाजीत् ल०। २ पराय॑मिति पद्मरागस्य विशेषणम् । इ ललितघटाख्यजनेषु । ४ लब्धः । ५ मणिः । ६ पुरुषस्य । तस्य ट०। ७ अविच्छिन्नप्रवृत्ति । ८ न फलप्रदो भवति । ९ निजभार्यया । १० पादेन । ११ ताडित इत्यर्थः । १२ भवद्भिर्वक्तव्यम् । १३ परित्यज्य । १४ कुबेरमित्रः ।