________________
पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व
४४३
यदिष्टं तदनिष्टं स्याद् यदनिष्टं सदिष्यते । इहेष्टानिष्टयोरिष्टा नियमन न हि स्थितिः ॥ १६८॥ ससा सातत्तदेवैषां सा स स्यात् सोऽपि तत्पुनः । तत्स स्यात्तसदेवा चक्रके वक्रसंक्रमः ॥१६६ ॥ अन्तमस्व विधास्यामि चिन्तयित्वा जिनोदितम्। संततं जन्मकान्तारभ्रान्तौ मीतोऽहमन्तकात् ॥२०॥ भोगोऽयं मोगिनो मोगो भोगिनो मोगिनामकृत्तावन्मानोऽपि नास्माकं भोगो भोगेप्विति ध्रुवम् ॥ भुज्यते यःस मोगः स्याद् भुक्तिर्वा भोग इष्यते। तदद्वयं नरकेऽप्यस्ति तस्माद् भोगेषु का रतिः ॥२०२॥ मोगास्तृष्णाग्निसंवद्ध्यै दीपनीयौषधोपमाः। एभिःप्रवृद्धतृष्णाग्नेः शान्त्यै चिन्त्यमिहापरम् ॥२०३॥ इत्यतो न सुधीः संयो वान्ततृष्णाविषो भृशम् । हेमांगदं समाहूय पूज्यपूजापुरस्सरम् ॥२०॥ . अभिषिच्य चलां मत्वा बध्वा पट्टेन वाञ्चलम् । लक्ष्मी समर्प्य गत्वोच्चैरभ्यासं वृषभेशितुः ॥२०५॥ प्रव्रज्य बहुभिः साद्ध मूर्धन्यैः स ससुप्रभः'। क्रमाच्छणी समारुह्य कैवल्यमुदपादयत् ॥२०६॥ अथ जन्मान्तरापातमहास्नेहातिनिर्मरः । सुलोचनाननानन्द नेन्दुबिम्बात् स्रुतां सुधाम् ॥२०७॥
"उन्मीलन्नीलनीरेजराजिभिर्लोकनैः पिबन् । पूरयन् श्रोत्रपात्राभ्यां तद्गीर्गीतरसायनम् ॥२०८॥ परम्परा बहुत ही दुःख देनेवाली है ॥१६७।। जो इष्ट है वह अनिष्ट हो जाता है और जो अनिष्ट है वह इष्ट हो जाता है, इस प्रकार संसारमें इष्ट-अनिष्टकी स्थिति किसी एक स्थानपर नियमित नहीं रहती ? ॥१९८॥ आजका पुरुष अगले जन्ममें स्त्री हो जाता है, स्त्री नपुंसक हो जाती है, नपुंसक स्त्री हो जाता है, वही स्त्री फिर पुरुष हो जाता है, वह पुरुष भी नपुंसक हो जाता है, वह नपुंसक फिर पुरुष हो जाता है अथवा नपुंसक नपुंसक ही बना रहता है, इस प्रकार इस चक्रमें बड़ा टेढ़ा संक्रमण करना पड़ता है ॥१९९॥ इसलिए श्रीजिनेन्द्रदेवके कहे हुए वचनोंका चिन्तवन कर मैं अवश्य ही इस संसारका अन्त करूंगा क्योंकि निरन्तर संसाररूपी वनके भीतर परिभ्रमण करने में मैं अब यमराजसे डर गया हूँ॥२००॥ भोग करनेवाले मनुष्योंके ये भोग ठीक सर्पके फणाके समान हैं और भोगनेवाले जीवको भोगी नाम देनेवाले हैं। तथा इतना सब होनेपर भी उन भोगोंमें-से एक भोग भी हमारा नहीं है यह निश्चय है ॥२०१।। जिसका भोग किया जाता है उसे भोग कहते हैं अथवा उपभोग किया जाना भोग कहलाता है. वे दोनों प्रकारके भोग नरकमें भी हैं इसलिए उन भोगोंमें क्या प्रेम करना है ? ॥२०२॥ जिस प्रकार औषधसे पेटकी अग्नि प्रदीप्त हो जाती है उसी प्रकार इन भोगोंसे भी तृष्णारूपी अग्नि प्रदीप्त हो उठती है अतः इन भोगोंसे बढ़ी हुई तृष्णारूपी अग्निको शान्तिके लिए कोई दूसरा ही उपाय सोचना चाहिए ॥२०३॥ इस प्रकार तृष्णारूपी विषको उगल देनेवाले बुद्धिमान् राजा अकम्पनने बहुत शीघ्र हेमांगदको बुलाकर पूज्य-परमेष्ठियोंकी पूजापूर्वक उसका राज्याभिषेक किया, लक्ष्मीको चंचल समझ पट्टबन्धसे बाँधकर उसे अचल बनाया और हेमांगदको सौंपकर श्रीभगवान् वृषभदेवके समीप जाकर अनेक राजाओं और रानी सुप्रभाके साथ दीक्षा धारण की तथा अनुक्रमसे श्रेणियाँ चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न किया ॥२०४-२०६।।
अथानन्तर अन्य जन्मसे आये हुए बहुत भारी स्नेहसे भरा हुआ जयकुमार खुले हुए नीलकमलोंके समान सुशोभित होनेवाले अपने नेत्रोंसे सुलोचनाके मुखरूपी आनन्ददायो.
१ इष्टं भवति । २ स पुमान् । ३ सा स्त्री स्यात् । ४ तत् नपुंसकम् । ५. एषा स्त्री स्यात् । ६ तत् नपुंसकम् । ७ तदेव पुनपुंसकमेव स्यात् । ८ चक्रवदावर्तमानसंसारे । ९ संसारस्य । १० सर्पस्य । ११ भोगीति नामकृत् । भोगीति नामकरः । सर्पनामकृदित्यर्थः । १२ भोगीति नामकृन्मात्रोऽपि । १३ पदार्थः । १४ पदार्थानुभवनक्रिया। १५ दीपनहेतुः । १६ भोगैः । १७ उपशान्तिकारणम् । १८ परमेष्ठीपूजापूर्वकम् । १९ निश्चलं यथा भवति तथा। पट्टेन बद्ध्वा वा निबन्धनं कृत्वेव समर्थे ति संबन्धः । २० क्षत्रियः । २१ सुप्रभादेवीसहितः । २२ आनन्दहेतुचन्द्र। २३ निसृताम् । २४ कान्तिम् । २५ विकसन्नोलोत्सलवद्विराजमानैः । २६ नेत्रैः । - लोचनैः तं विहाय सर्वत्र । २७ सुलोचनावचनरूपगीतम् ।