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चतुत्रिंशत्तमं पर्व
न भोकमन्यथाकारं महीं तेभ्यो ददाम्यहम् । कथंकारमिदं चक्र विश्रमं यात्वतज्जय ॥६६॥ इदं महदनाख्येयं यत्प्राज्ञो बन्धुवत्सलः । स वाहबलिसाह्वोऽपि भजते विकृति कृती ॥६॥ अबाहबलिनानेन राजकन नतेन किम् । नगरेण गरेणेव भुकेनापोदनेनं किम् ॥६६॥ किं किंकरः करालास्त्रप्रतिनिर्जित शानवैः । अनाज्ञावशर्मतस्मिन् नवविक्रमशालिनि ॥६६॥ किं वा सुरभटैरभिरुदभटारभटीरसः । मर्यवमसमां स्पद्वा तस्मिन्कुर्वति गर्विते ॥७॥ इति जल्पति संरम्भाच्चक्रपाणावुपक्रमम् । तस्योपचक्रम कत्त पुनरित्थं पुरोहितः ॥७॥ जितजेतव्यतां देव घोषयन्नपि किं मुधा । जितोऽसि क्रोधवेगेन प्राग्जय्यो वशिनां हि सः ॥७२॥ बालास्ते बालभावेन' 'विल सन्त्वपथेऽप्यलम् । देवे जितारिषड्वर्गे न तमः" स्थातुमईति ॥७३॥ क्रोधान्धतमसे मग्नं यो नात्मानं समुद्धरेत् । स कृत्यसंशयद्वैधानी त्तरीतुमलंतराम् ॥७॥ किं तरां स विजानाति कार्याकार्यमनात्मवित् । यः स्वान्तःप्रभवान् जेतुमरीन प्रभवेत्प्रभुः ॥७॥ तद्देव विरमामुप्मात् संरम्भादपकारिणः । जितात्मानो जयन्ति मां क्षमया हि जिगीषवः ॥७६॥
हो सकता है ।।६५।। और किसी तरह उनके उपभोगके लिए मैं उन्हें यह पथिवी नहीं दे सकता हूँ। उन्हें जीते बिना यह चक्ररत्न किस प्रकार विश्राम ले सकता है ? ॥६६।। यह बड़ी निन्दाकी बात है कि जो अतिशय बद्धिमान है. भाइयों में प्रेम रखनेवाला है, और कार्यकुशल है वह बाहुबली भी विकारको प्राप्त हो रहा है ॥६७। बाहबलीको छोड़कर अन्य सब राजपुत्रोंने नमस्कार भी किया तो उससे क्या लाभ है और पोदनपुरके बिना विषके समान इस नगरका उपभोग भी किया तो क्या हुआ ॥६८॥ जो नवीन पराक्रमसे शोभायमान बाहुबली हमारी आज्ञाके वश नहीं हुआ. तो भयंकर शस्त्रोंसे शत्रुओंका तिरस्कार करनेवाले सेवकोंसे क्या प्रयोजन है ? ॥६९।। अथवा अहंकारी वाहबली जब इस प्रकार मेरे साथ अयोग्य ईया कर रहा है तब अतिशय शूरवीरतारूप रसको धारण करनेवाले मेरे इन देवरूप योद्धाओंसे क्या प्रयोजन है ? ॥७०।। इस प्रकार जब चक्रवर्ती क्रोधसे बहुत बढ़-बढ़कर बातचीत करने लगे तब परोहितने उन्हें शान्त कर उपायपर्वक कार्य प्रारम्भ करनेके लिए नीचे लिखे अनसार उद्योग किया ॥७॥ हे देव. मैंने जीतने योग्य सबको जीत लिया है ऐसी घोषणा करते हुए भी आप क्रोधके वेगसे व्यर्थ ही क्यों जीते गये ? जितेन्द्रिय पुरुषोंको तो क्रोधका वेग पहले ही जीतना चाहिए ॥७२॥ वे आपके भाई बालक हैं इसलिए अपने बालस्वभावसे कुमार्गमें भी अपने इच्छानुसार क्रीड़ा कर सकते हैं परन्तु जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छहों अन्तरंग शत्रुओंको जीत लिया है ऐसे आपमें यह अन्धकार ठहरनेके योग्य नहीं है अर्थात् आपको क्रोध नहीं करना चाहिए ॥७३॥ जो मनुष्य क्रोधरूपी गाढ़ अन्धकारमें डूबे हुए अपने आत्माका उद्धार नहीं करता वह कार्यके संशयरूपी द्विविधासे पार होनेके लिए समर्थ नहीं है । भावार्थ - क्रोधसे कार्यकी सिद्धि होनेमें सदा सन्देह बना रहता है ॥७४।। जो राजा अपने अन्तरंगसे उत्पन्न होनेवाले शत्रुओंको जीतनेके लिए समर्थ नहीं है वह अपने आत्माको नहीं जाननेवाला कार्य और अकार्यको कैसे जान सकता है ? ॥७५।। इसलिए हे देव, अपकार करनेवाले इस क्रोधसे दूर रहिए क्योंकि जीतकी इच्छा रखनेवाले जिते
१ अन्यथा । २ कथम् । ३ तेषां जयाभावे । ४ अवाच्यम् । ५ बाहुबलिनामा । ६ बाहुबलिकुमाररहितेन । ७ गरलेनेव । ८ पोदनपुररहितेन । ९ तजित - ल०, द०। १० बाहुबलिनि । ११ अधिकभयानकरसैः ।
१२ क्रोधात् । १३ युद्धारम्भम् । १४ बालत्वेन । १५ गविता भूत्वा वर्तन्त इत्यर्थः । १६ अज्ञानम् । . १७ कार्यसंदेहद्वैविध्यात् ।