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अष्टत्रिंशसमं पर्व
२४१ ते तु स्वव्रतसिद्धयर्थमीहमाना' महान्वयाः । नैपुः प्रवेशनं तावद् यावदाङ्कुिराः पथि ॥१३॥ सधान्यैर्हरितैः कीर्णमनाक्रम्य नृपाङ्गणम् । निश्चक्रमुः कृपालुत्वात् केचित् सावद्यभीरवः ॥१४॥ कृतानुबन्धना भूयश्चक्रिणः किल तेऽन्तिकम् । प्रासुकेन पथाऽन्येन भेजुः क्रान्त्वा नृपाङ्गणम् ॥१५॥ प्राक केन हेतुना यूयं नायाताः पुनरागताः । केन तेति पृष्टास्ते प्रत्यभाषन्त चक्रिणम् ॥१६॥ प्रवालपत्रपुष्पादेः पर्वणि व्यपरोपणम् । न कल्पतेऽद्य तज्जानां जन्तूनां नो ऽनभिद्रुहाम् ॥१७॥ सन्त्येवानन्तशो जीवा हरितेष्वङ्करादिषु । निगोता इति सार्वज्ञ देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥१॥ तस्मान्नास्मामिराक्रान्तमद्यत्वे त्वद्गृहाङ्गणम् । कृतोपहारमाद्रेि: फलपुष्पाकुरादिभिः ॥११॥ इति तद्वचनात् सर्वान् सोऽभिनन्द्य दृढव्रतान् । पूजयामास लक्ष्मीमान्दानमानादिसत्कृतैः ॥२०॥ तेषां कृतानि चिह्नानि सूत्रैः पद्मावयानिधेः । "उपात्तैर्ब्रह्मसूत्राद्वैरेकायकादशान्तकैः ॥२१॥ गुणभूमिकृताद भेदात् क्लप्तयज्ञोपवीतिनाम् । सत्कारः क्रियते स्मैषामव्रताश्च बहिः कृताः ॥२२॥ अथ ते कृतसन्मानाः चक्रिणा व्रतधारिणः । भजन्ति स्म परं दान्य लोकश्चैनानपूजयत् ॥२३॥ इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥२४॥
बिना किसी सोच-विचारके राजमन्दिरमें घुस आये। राजा भरतने उन्हें -एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगोंको बुलाया ॥१२॥ परन्तु बड़े-बड़े कुलमें उत्पन्न हुए और अपने व्रतकी सिद्धिके लिए चेष्टा करनेवाले उन लोगोंने जबतक मार्गमें हरे अंकूरे हैं तबतक उसमें प्रवेश करनेकी इच्छा नहीं की ॥१३॥ पापसे डरनेवाले कितने ही लोग दयालु होनेके कारण हरे धान्योंसे भरे हुए राजाके आँगनका उल्लंघन किये बिना ही वापस लौटने लगे ॥१४॥ परन्तु जब चक्रवर्तीने उनसे बहुत ही आग्रह किया तब वे दूसरे प्रासुक मार्गसे राजाके आँगनको लाँघकर उनके पास पहुँचे ॥१५॥ आप लोग पहले किस कारणसे नहीं आये थे, और अब किस कारणसे आये हैं ? ऐसा जब चक्रवर्तीने उनसे पूछा तब उन्होंने नीचे लिखे अनुसार उत्तर दिया ॥१६॥ आज पर्वके दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प आदिका विधात नहीं किया जाता और जो अपना कुछ बिगाड़ करते हैं ऐसे उन कोंपल आदिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका भी विनाश किया जाता है ॥१७।। हे देव, हरे अंकुर आदिमें अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, ऐसे सर्वज्ञदेवके वचन हमलोगोंने सुने हैं ॥१८॥ इसलिए जिसमें गीले-गीले फल, पुष्प और अंकुर आदिसे शोभा की गयी है ऐसा आपके घरका आँगन आज हम लोगोंने नहीं खूदा है ॥१९।। इस प्रकार उनके वचनोंसे प्रभावित हुए सम्पत्तिशाली भरतने व्रतोंमें दृढ़ रहनेवाले उन सबको प्रशंसा कर उन्हें दान मान आदि सत्कारसे सन्मानित किया ॥२०॥ पद्म नामकी निधिसे प्राप्त हुए एकसे लेकर ग्यारह तककी संख्यावाले ब्रह्मसूत्र नामके सूत्रसे (व्रतसूत्रसे) उन सबके चिह्न किये ।।२१।। प्रतिमाओंके द्वारा किये हुए भेदके अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण. किये हैं ऐसे इन सबका भरतने सत्कार किया तथा जो व्रती नहीं थे उन्हें वैसे ही जाने दिया ॥२२॥ अथानन्तर चक्रवर्तीने जिनका सन्मान किया है ऐसे व्रत धारण करनेवाले वे लोग अपने-अपने व्रतोंमें और भी दृढ़ताको प्राप्त हो गये तथा अन्य लोग भी उनकी पूजा आदि करने लगे ॥२३॥ भरतने उन्हें उपासकाध्ययनांगसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और
१ चेष्टमानाः । २ नेच्छन्ति स्म । ३ निर्गताः । ४ निबन्धाः । ५ मार्गेण । ६ हिंसनम् । ७ प्रवालपत्रपुष्पादिजातानाम् । ८ अस्माकम् । ९ अहिंसकानाम् । १० सर्वज्ञस्येदम् । ११ इदानीम् । १२ नितरामाः । १३ वस्त्रादिदानसद्वचनादिपूजासत्कारैः। १४ स्वीकृतैः । १५ दार्शनिकादिगुणनिलयविहितात । १६ कृत । १७ जनः ।