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द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व
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'जैनास्तु पार्थिवास्तेषामहत्पादोपसेविनाम् । तच्छेषानुमतिया॑य्या यतः पापक्षयो भवेत् ॥२४॥ रत्नत्रितयमूर्तित्वादादिक्षत्रियवंशजाः । जिनाः सनामयोऽमीषाम तस्तच्छेषधारणम् ॥२५॥ यथा हि कुलपुत्राणां माल्यं गुरुशिरोद्धतम् । मान्यमेवं जिनेन्द्राधिस्पर्शान्माल्यादिभूषितम् ॥२६॥ कथं मुनिजनादेषां शेषोपादानमित्यपि । नाशङ्कयं तत्सजातीयास्ते' राजपरमर्षयः ॥२७॥ अक्षत्रियाश्च वृत्तस्थाः क्षत्रिया एव दीक्षिताः । यतो रत्नत्रयायत्तजन्मना तेऽपि तद्गुणाः ॥२८॥ ततः स्थितमिदं जैनान्मतादन्यमतस्थिताः । क्षत्रियाणां न शेषादिप्रदानेऽधिकृता इति ॥२९॥ कुलानुपालने यत्नमतः कुर्वन्तु पार्थिवाः । अन्यथाऽन्यैः प्रतापूरन् पुराणाभासदेशनात् ॥३०॥ कुलानुपालनं प्रोक्तं वक्ष्ये मत्यनुपालनम् । मतिर्हिताहितज्ञानमात्रिकामुत्रिकार्थयोः ॥३१॥ तपालनं कथं स्याचेदविद्यापरिवर्जनात् । मिथ्याज्ञानमषिया स्यादतरवे तत्वभावना ॥३२॥ आप्तोपझं भवेत्तस्वमाप्तो दोषावृति क्षयात् । तस्मात्तम्मतमभ्यस्येन्मनोमलमपासितुम् ॥३३॥
आदिका परित्याग कर देना चाहिए अन्यथा उनके कुलमें हीनता हो सकती है ॥२३॥ राजा लोग जैन हैं इसलिए अरहन्तदेवके चरणोंकी- सेवा करनेवाले उन राजाओंको अरहन्तदेवके शेषाक्षत आदि ग्रहण करनेकी अनुमति देना न्याययुक्त हो है क्योंकि उससे उनके पापका क्षय होता है ॥२४॥ रत्नत्रयकी मूर्तिरूप होनेसे आदि क्षत्रिय श्री वृषभदेवके वंशमें उत्पन्न हुए जिनेन्द्रदेव इन राजाओंके एक ही गोत्रके भाई-बन्धु हैं इसलिए भी इन्हें उनके शेषाक्षत आदि धारण करना चाहिए । भावार्थ-रत्नत्रयकी मूर्ति होनेसे जिस प्रकार अन्य तीर्थकर भगवान् वृषभदेवके वंशज कहलाते हैं उसी प्रकार ये राजा लोग भी रत्नत्रयकी मूर्ति होनेसे भगवान वृषभदेवके वंशज कहलाते हैं । एक वंशमें उत्पन्न होनेसे ये सब परस्परमें एक गोत्रवाले भाईबन्धु ठहरते हैं इसलिए राजाओंको अपने एकगोत्री जिनेन्द्रदेवके शेषाक्षत आदिका ग्रहण करना उचित ही है ॥२५॥ जिस प्रकार कुलपुत्रोंको गुरुदेवके शिरपर धारण की हुई माला मान्य होती है उसी प्रकार जिनेन्द्रदेवके चरणोंके स्पर्शसे सुशोभित हुई माला आदि भी राजाओंको मान्य होनी चाहिए ॥२६॥ कदाचित् कोई यह कहे कि राजाओंको मुनियोंसे शेषाक्षत आदि किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए तो उनकी यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि राजर्षि और परमर्षि दोनों ही सजातीय हैं ॥२७॥ जो क्षत्रिय नहीं हैं वे भी दीक्षा लेकर यदि सम्यक्चारित्र धारण कर लेते हैं तो क्षत्रिय ही हो जाते हैं इसलिए रत्नत्रयके अधीन जन्म होनेसे मुनिराज भी राजाओंके समान क्षत्रिय माने जाते हैं ॥२८॥ उपर्युक्त उल्लेखसे यह बात निश्चित हो चुकी कि जैन मतसे भिन्न मतवाले लोग क्षत्रियोंको शेषाक्षत आदि देनेके अधिकारी नहीं हैं ॥२९।। इसलिए राजा लोगोंको अपने कुलकी रक्षा करनेमें सदा यत्न करते रहना चाहिए अन्यथा अन्य मतावलम्बी लोग झूठे पुराणोंका उपदेश देकर उन्हें ठग लेंगे ॥३०॥ इस प्रकार क्षत्रियोंका कुलानुपालन ( कुलके आम्नायकी रक्षा करना ) नामका पहला धर्म कह चुके अब दूसरा मत्यनुपालन ( बुद्धि की रक्षा करना ) नामका धर्म कहते हैं। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थोंके हित-अहितका ज्ञान होना बुद्धि कहलाती है ॥३१॥ उस बुद्धिका पालन किस प्रकार हो सकता है ? यदि यह जानना चाहो तो उसका उत्तर यह है कि अविद्याका नाश करनेसे ही उसका पालन होता है । मिथ्या ज्ञानको अविद्या कहते हैं और अतत्त्वोंमें तत्त्ववृद्धि होना मिथ्या ज्ञान कहलाता है ॥३२॥ जो अरहंतदेवका कहा हुआ हो वही तत्त्व
१ ततः ल०, म० । २ क्षत्रियाणाम् । ३ भूषणम् । ४ क्षत्रियाणाम् । ५ तत्समानजातिभवाः । ६ मुनयः । ७ जिनगुणाः । ८ प्रतिष्ठितम् । ९ वञ्चेरन् । १० आवरण ।