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आदिपुराणम् मेघस्वरो भीमभुजस्तथाऽन्येऽप्युदितोदिताः । कृतिनो बहवः सन्ति तेषु यत्राशयोत्सवः ॥१९॥ शिष्टान् पृष्टा च दैवज्ञान्निरीक्ष्य शकुनानि च । स हितः समसंबन्धस्तस्मै कन्येति दीयताम् ॥१९॥ श्रुत्वा सर्वार्थवित्सर्वं सर्वार्थः प्रत्युवाच तत् । भूमिगोचरसंबन्धः स नः प्रागपि विद्यते ॥१९२॥ अपूर्वलाभः श्लाघ्यश्च विद्याधरसमाश्रयः । विचार्य तत्र कस्मैचिद्देयेयमिति निश्चितम् ॥ १६३॥ सुमतिस्तं निशम्याथ युक्तानामाह युक्तवित् । न युक्तं वमप्येतत्स र्ववैरानुबन्धकृत् ॥१६४॥ किं भूमिगोचरेप्वस्या वरो नास्तीति चेतसि । चक्रिणोऽपि भवेत्किंचिद् वैरस्यं प्रस्तुतश्रुतेः'' ॥१९५॥ दृष्टः सम्यगुपायोऽयं मयाऽत्रैकोऽविरोधकः । श्रुतः पूर्वपुराणेषु स्वयंवरविधिर्वरः ॥१६६॥ संप्रत्यकम्पनोपक्रम तदस्त्वायुगावधि"। "पुरुतत्पुत्रवत्सृष्टि"ख्यातिरस्यापि जायताम् ॥१७॥ दीयतां कृतपुण्याय कस्मैचित् कन्यका स्वयम् । वेधसा विप्रियं नोऽमा माभूद्भूभृत्सु केनचित् ॥ इत्येवमुक्त तत्सर्वैः संमतं सहभूभुजा.। नहि मत्सरिणः सन्तो न्यायमार्गानुसारिणः ॥१९९॥
तान् संपूज्य विसाभूद भू तत्कार्यतत्परः । स्वयमेव गृहं गत्वा सर्व तत्संविधानकम् २०० हैं उनमें जिसके लिए अपना चित्त प्रसन्न हो उसके लिए शिष्ट जन तथा ज्योतिषियोंसे पूछकर
और उत्तम शकुन देखकर कन्या देनी चाहिए क्योंकि बराबरीवालोंके साथ सम्बन्ध करना ही कल्याणकारी हो सकता है ॥१८६-१९१॥ यह सब सुनकर समस्त विषयोंको जाननेवाला सर्वार्थ नामका मन्त्री बोला कि भूमिगोचरियोंके साथ तो हम लोगोंका सम्बन्ध पहलेसे ही विद्यमान है, हाँ, विद्याधरोंके साथ सम्बन्ध करना हम लोगोंके लिए अपूर्व लाभ है तथा प्रशंसनीय भी है इसलिए विचारकर विद्याधरोंमें ही किसीको यह कन्या देनी चाहिए ऐसा मेरा निश्चित मत है ॥१६२-१९३॥ तदनन्तर वहाँपर एकत्रित हुए सब लोगोंका अभिप्राय जानकर योग्य बातको जाननेवाला सुमति नामका मन्त्री बोला कि यह सब कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ये सभी बातें शत्रुता उत्पन्न करनेवाली हैं ॥ १९४ ॥ विद्याधरको कन्या दी है यह सुननेसे चक्रवर्तीके चित्तमें भी 'क्या भूमिगोचरियोंमें इसके योग्य कोई वर नहीं है' यह सोचकर कुछ बुरा लगेगा ॥ १९५ ।। इस विषयमें किसीसे विरोध नहीं करनेवाला एक अच्छा उपाय मैंने सोचा है और वह यह है कि प्राचीन पुराणोंमें स्वयंवरकी उत्तम विधि सुनी जाती है। यदि इस समय सर्वप्रथम् अकम्पन महाराजके द्वारा उस विधिका प्रारम्भ किया जाय तो भगवान् वृषभदेव और उनके पुत्र सम्राट भरतके समान संसारमें इनकी प्रसिद्धि भी युगके अन्त तक हो जाय ॥ १६६-१६७ ॥ इसलिए यह कन्या स्वयंवरमें जिसे स्वीकार करे ऐसे किसी पुण्यशाली राजकुमारको देनी चाहिए । ऐसा करनेसे हम लोगोंका आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेव अथवा युगव्यवस्थापक सम्राट भरतसे कुछ विरोध नहीं होगा, और न राजाओंका भी परस्परमें किसीके साथ कुछ वैर होगा ॥ १९८ ॥ इस प्रकार सुमति नामके मन्त्रीके द्वारा कही सब बातें राजाके साथ-साथ सबने स्वीकृत की सो ठीक ही है क्योंकि नीतिमार्गपर चलनेवाले पुरुष मात्सर्य नहीं करते ॥ १९९ ॥ तदनन्तर राजाने सन्मान कर मन्त्रियोंको विदा किया और स्वयं १ उपर्युपर्यभ्युदयवन्तः । २ पुंसि । ३ चित्तोत्सवोऽस्ति । ४ ज्योतिष्कान् । ५ अस्माभिः सह संबन्धः संबन्धवान् वा । ६ तम् अ०, ५०, स०, इ०, ल०, म०। ७ भूचर । ८ अभिप्रायम् । ९ मिलितानाम् । श्रुतादीनाम् । १० सर्व वैरा-१०, ल० । ११ विवाहवार्ताश्रवणात् । १२ पूर्वस्मिन् श्रुत: १३ अकम्पनेन प्रक्रमोपक्रान्तम् । १४ स्वयंवरनिर्माणम् । १५ पुरुजित्भरतराजवत् । १६ स्रष्टुः ट० । स्वयंवरस्य स्रष्टा इति प्रसिद्धिः । सृष्टिरिति पाठे स्वयंवरस्य सृष्टिप्रसिद्धिः । १७ ब्रह्मणा । 'स्रष्टा प्रजापतिर्वेधा विधाता विश्वसृविधिः' इत्यभिधानात् । १८ विरुद्धम् । अप्रियमित्यर्थः । १९ नृपेषु । २० मन्त्रिणः । २१ अकम्पनः । २२ स्वयंवरकार्य । २३ प्रस्तुतं कृत्य ।