Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 446
________________ ४२८ आदिपुराणम् 3 1 ५० 13 तदा पूर्वोदितो देवः समागत्य सुसंपदा । सुलोचनाविवाहोरुकल्याणं समपादयत् ॥ ३२ ॥ - मेघप्रभ सुकेः वादिसमहायान सहानुजः । जयोऽप्यगमयत् सर्वान् सन्तर्यार्थे बहुप्रियः ॥ ३३ ॥ * नाथवंशाग्रणीश्राम। "अमालोय सत्वरम् सुधीः गृहसाराणि वच्या रत्नान्युपायनम् ॥३४॥ विदित प्रस्तुतार्थोऽसि यथाऽसौ नः प्रसीदति । तथा कुर्विति चक्रेशं सुमुखाख्यमजी गमत् ॥३५॥ आ गया निवेद्य दृष्ट्वेशं धरणी तनुस् । क्षिप्त्वा प्रणम्य दत्वा च प्राभृतं निभृताञ्जलिः' देवस्यानुचरो देव प्रणम्याकम्पनो भयात् । देवं विज्ञापयत्येवं प्रसादं कुरु तच्छृणु ॥ ३७ ॥ सुलोचनेति नः कन्यासारस्त्वद्विहितश्रिये । स्वयंवरविधानेन संप्रादायि जयाय सा ॥ ३८ ॥ ។ 9 'तत्रागत्य कुमारोऽपि प्राक् सर्वमनु "मध्य तत्" । विद्याधरधराधीशैः सुप्रसन्नैः सह स्थितः ॥३६॥ पश्चात् कोऽपि ग्रहः क्रूरः स्थित्वा सह शुभग्रहम् । खलो बलाद्ययाऽस्मभ्यं वृथा कोपयति स्म तम् ॥४०॥ विज्ञातमेव देवेन सर्व संविधानकम् । चार श्वेतकिं पुनः सावधिर्भवान् ॥४१॥ 'कुमारो हि कुमारोऽसौ नापराधोऽस्ति कश्चन । 'तत्र तस्य सदोषाः स्मो वयमेव प्रमादिनः ॥४२॥ ५ २० ૨૨ २५ २६ ૨૪ ૨૩ の ॥३१ ॥ उसी समय पहले कहे हुए देवने आकर बड़े वैभवके साथ सुलोचनाके विवाहका उत्सव सम्पन्न किया ||३२|| सबके प्यारे जयकुमारने भी अपने छोटे भाइयोंके साथ साथ मेघप्रभ सुकेतु आदि अच्छे-अच्छे सब सहायकोंको धन द्वारा सन्तुष्ट कर विदा किया ||३३|| तदनन्तर नाथवंश के शिरोमणि अतिशय बुद्धिमान् अकम्पनने अपने जमाई जयकुमारके साथ सलाह की और अपने घरके अच्छे-अच्छे रत्न भेंट में देनेके लिए बाँधकर सुमुख नामक दूतको यह कहकर चक्रवर्तीके पास भेजा कि तू वर्तमानका सब समाचार जानता ही है, चक्रवर्ती जिस प्रकार हम लोगोंपर प्रसन्न हों वही काम कर ।। ३४-३५ ।। उस दूसने शीघ्र ही जाकर पहले अपने आने की खबर भेजी फिर चक्रवर्तीके दर्शन कर पृथिवीपर अपना शरीर डाल प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर साथमें लायी हुई भेंट देकर कहा कि हे देव, अकम्पन नामका राजा आपका अनुचर है वह प्रणाम कर भयसे आपसे इस प्रकार प्रार्थना करता है सो प्रसन्नता कीजिए और उसे सुन लीजिए || ३६-३७|| उसने कहा है कि सुलोचना नामकी मेरी एक उत्तम कन्या थी वह मैंने स्वयंवर - विधिसे आपने ही जिसकी लक्ष्मी अथवा शोभा बढ़ायी है ऐसे जयकुमारके लिए दी थी ||३८|| कुमार अर्ककीर्तिने भी उस स्वयंवर में पधारकर पहले सब बात स्वीकार कर ली थी और वे प्रसन्न हुए विद्याधर राजाओंके साथ-साथ वहाँ विराजमान थे ||३९|| तदनन्तर जिस प्रकार कोई दुष्ट शुभ ग्रहके साथ ठहरकर उसे भी दुष्ट कर देता है उसी प्रकार किसी दुष्टने जवरदस्ती हम लोगोंपर व्यर्थ ही उन्हें क्रोधित कर दिया ||४०|| इसके बाद वहाँ जो 'कुछ' भी हुआ था वह सब समाचार आपको विदित ही है क्योंकि गुप्तचर रूप नेत्रोंको धारण करनेवाला साधारण राजा भी जब यह सब जान लेता है तब फिर भला आप तो अवधिज्ञानी हैं, आपका क्या कहना है ? ।। ४१ ।। कुमार तो अभी कुमार (लड़का ) ही हैं उसमें सदोष हैं प्रमाद करनेवाले केवल हम लोग ही इसमें उनका कुछ भी दोष नहीं है, १ स्वयंवर निर्माण प्रोक्तविचित्राङ्गकसुरः । २ सहानुजान् प०, इ० म०, ल० । ३ बहवः प्रियाणि मित्राणि यस्य सः। ४ अकम्पनः। ५ पुत्र्याः प्रियेण सह । ६ निजगृहे स्थितेषूत्कृष्टानि । ७ प्राभृतम् । ८ चक्री । ९ सुमुखा दूतम् १० गमयति स्म। ११ दूतः । १२ भूम्याम् । १३ स्थिराञ्जलिः | १४ कन्या सूत्कृष्टत्वात् । १५ स्वया कृतं जयाय संप्रादामीति संबन्धः । १६ दत्ता १७ स्वयंवरे १८ अनुमति कृत्या १९ स्वयंवर विधानम् | २० चन्द्रादिशुभग्रहान्वितं यथा भवति तथा स्थित्वा कोपयति तं तथेति संबन्धः । २१ तद्वृत्तान्तम् । २२ चारा गूढ गुरुपा एवं चक्षुर्यस्य । २३ अवधिज्ञानसहितः । २४ बालकः । २५ संविधाने । २६ सापराधाः । २७ भवामः ।

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