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पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व
४३ तत् (तं) प्राप्य सिन्धुरं रुध्धा स राजद्वारि राजकम् । विसर्योच्चैः प्रविश्यान्तरवतीर्य निषाद्य तम् । राजा सुलोचनां चावरोप्य स्वभुजलम्बिनीम् । निविश्य स्वोचिते स्थाने मृदुशय्यातले सुखम् ॥११०॥ तत्कालोचितवृत्तज्ञः प्रियां संतर्पयन प्रियैः । स्नानभोजनवाग्वाद्यगीतनृत्यविनोदनैः ॥१११॥ नीत्वा रात्रिं सुखं तत्र प्रत्याय्य प्रत्ययं स्थितेः। तां निवेश्य समाश्वास्य हेमाङ्गदपुरस्सरान् ॥११२॥ नियोज्य स्वानुजान् सर्वान् सम्यक्कटकरक्षणे । आप्तैः कतिपयैरेव प्रत्ययोध्यमियाय सः ॥११३॥ अर्ककीर्त्यादिभिःप्रप्ठः प्रत्यागत्य प्रतीक्षितः । सस्नेहं सादरं भूयः कुमारणालपन् पुरीम् ॥११॥ सानुरागान स्वयं रागात् प्राविशद्वा विशां पतिः । न पूजयन्ति के वाऽन्ये पुरुषं राजपूजितम् ॥१५॥ इन्द्रो वेभाद् बहिराजिनस्योत्तीर्य भूपतेः । सभागेहं समासाद्य मणिकुट्टिमभूतलम् ॥११६॥ मध्ये"तस्य स्फुरद्रत्नखचितस्तम्भसम्भृते । विचित्रनेत्रविन्यस्तसद्वितानविराजिते ॥११७॥ मणिमुक्ताफलप्रो तलम्बलम्बूषभूषणे । परायरत्नभाजालजटिले मणिमण्डपे" ॥११॥ विधुं ज्योतिर्गगेनेव राजकेन विराजितम् । स्वकीर्ति निर्मलैवींज्यमानं चारजन्मभिः ॥११९॥
बनाया गया है ऐसा वह सेनाका आवास (पड़ाव) इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो स्वर्गका दूसरा आवास ही हो ॥१०८॥ जयकुमारने अपने डेरेके पास जाकर उसके बड़े दरवाजेके समीप ही अपना हाथी रोका, वहीं सब राजाओंको विदा किया फिर ऊँचे तम्बूके भीतर प्रवेश कर हाथीको बैठाया-स्वयं उतरे, अपनी भुजाओंका सहारा लेनेवाली सुलोचनाको भी उतारा और अपने योग्य स्थानमें कोमल शय्यातलपर सुखसे विराजमान हुए। फिर उस समयके योग्य समाचारोंको जाननेवाले जयकुमारने स्नान, भोजन, वार्तालाप, बाजे, गीत, नृत्य आदि । मनोहर विनोदोंसे सुलोचनाको सन्तुष्ट किया, रात्रि वहीं सुखसे बितायी, वहाँ ठहरनेका कारण बतलाया, उसे समझा-बुझाकर वहींपर रखा, हेमांगद आदि सुलोचनाके भाइयोंको भी वह रखा, अपने सब छोटे भाइयोंको अच्छी तरह सेनाको रक्षा करने में नियुक्त किया और फिर " कुछ आप्त पुरुषोंके साथ अयोध्याकी ओर गमन किया ॥१०६-११३॥ अयोध्या पहुँचनेपर अर्ककीर्ति आदि अच्छे-अच्छे पुरुषोंने सामने आकर जिसका स्वागत किया है. तथा जो बड़े स्नेह और आदरके साथ अर्ककीतिसे वार्तालाप कर रहा है ऐसे राजा जयकुमारने अनुराग करनेवालोंके साथ-साथ बड़े प्रेमसे अयोध्यापूरीमें प्रवेश किया सो ठीक ही है क्योंकि अन्य ऐसे पुरुष कौन हैं जो राजमान्य पुरुषकी पूजा न करें ॥११४-११५। जिस प्रकार इन्द्र समवसरणके बाह्य दरवाजेपर पहुँचकर हाथीसे उतरता है उसी प्रकार जयकुमार भी राजभवनके बाह्य दरवाजेपर पहुँचकर हाथीसे उतरा. और सभागहमें पहुँचा। उस सभागृहकी जमीन मणियोंसे जड़ी हई थी, उसके मध्यमें एक रत्नमण्डप था जो कि देदीप्यमान रत्नोंसे जड़े हए खम्भोंसे भरा हुआ था, अनेक प्रकारके रेशमी वस्त्रोंके तने हुए चन्देवोंसे सुशोभित था, मणियों और मोतियोंसे गुथे हुए लम्बे-लम्बे फन्नूस रूप आभूषणसे युक्त था, और बहुमूल्य रत्नोंको कान्तिके जालसे व्याप्त था। जिस प्रकार उदयाचलपर सूर्य सुशोभित होता है उसी प्रकार उस रत्नमण्डपमें ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए महाराज भरत सुशोभित हो रहे थे। जिस प्रकार ज्योतिषी देवोंके समूहसे चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार महाराज भरत भी अनेक राजाओंसे सुशोभित हो रहे थे, उनपर अपनी कोतिके समान निर्मल चमर ढुलाये जा रहे थे, इन्द्रके
१ राजसमूहम् । २ उपविश्य । ३ तं गजम् । ४ प्रतिबोध्य । ५ कारणम् । ६ अयोध्या प्रति । ७१ली। ८ पूजितः । ९ चक्रवर्तीव । १० समवसरणमिव भूपतेः सभागृहमिति संबन्धः । ११ सभागृहस्य- २२ परवस्त्रकृत । १३ खचित । १४ दाम । १५ रत्नमण्डपे ल०। १६ चामरैः ।