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पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व
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'देवेनान्यसामान्यमाननां मम कुर्वता । ऋणीकृतः क्व वाssनृण्यं भवान्तरशतेष्वपि ॥१३३॥ नाथेन्दुवंशसंरोहौ" पुरुणा विहितौ त्वया । वर्द्धितौ पालितौ स्थापितौ च यावद्धरातलम् ॥१३४॥ इति प्रश्रयणीं वाणीं श्रुत्वा तस्य निधीश्वरः । तुष्ट्या संपूज्य पूजाविद्वस्त्राभरणवाहनैः ॥ १३५ ॥ दत्वा सुलोचनायै च तद्योग्यं विससर्ज तम् । महीं प्रियामिवालिङ्ग्य तं प्रणम्य ययौ जयः ॥ १३६ ॥ संपत्संपन्न पुण्यानामनुबध्नाति संपदम् । पौरैर्वनी पकानीकैः स्तूयमानस्वसाहसः ॥१३७॥ पुराद् गजं समारुह्य 'निष्क्रम्येप्सुर्मनः प्रियाम् । सद्यो गङ्गां समासन्नः स्त्रमनोवेगचोदितः ॥१३८॥ शुष्क भूरुहशाखाग्रे संमुखीभूय भास्त्रतः " 'रुवन्तं 'ध्वाङ क्षमालोक्य कान्तायाश्चिन्तयन्भयम् ॥ मूच्छितः प्रेमसद्भावात् तादृशो धिक् सुखं रतेः । समाश्वास्य तदोपायैः सुखमास्ते सुलोचना ॥१४०॥ जलाद् भयं भवेत् किंचिदस्माकं शकुनादितः । इत्युदीर्येङ्गितज्ञेन शकुनज्ञेन सान्वितः ॥ १४१ ॥ सुदेवस्य तद्वाक्यं कृत्वा प्राणावलम्बनम् । व्रजन् स सत्वरं "मोहादतीर्थे ऽचोदयद् गजम् ॥१४२॥ हेयोपेयविवेकः" कः कामिनां मुग्धचेतसाम् । उत्पुष्करं स्फुरद्दन्तं प्रोद्यत्तत्प्रतिमानकम् ॥१४३॥ सबमें कौन हूँ ? - मेरी गिनती ही क्या है ? || १३२ || हे देव, जो दूसरे साधारण पुरुषोंको न प्राप्त हो सके ऐसा मेरा सन्मान करते हुए आपने मुझे ऋणी बना लिया है सो क्या सैकड़ों भवों में भी कभी इस ऋण से छूट सकता हूँ ? || १३३ || हे स्वामिन्, ये नाथवंश और चन्द्र वंशरूपी अंकुर भगवान् आदिनाथके द्वारा उत्पन्न किये गये थे और आपके द्वारा वर्धित तथा पालित होकर जबतक पृथिवी है तबतक के लिए स्थिर कर दिये गये हैं ।। १३४|| आदर-सत्कारको जाननेवाले महाराज भरत इस प्रकार विनयसे भरी हुई जयकुमारकी वाणी सुनकर बहुत ही सन्तुष्ट हुए, उन्होंने वस्त्र, आभूषण तथा सवारी आदिके द्वारा जयकुमारका सत्कार किया तथा सुलोचनाके लिए भी उसके योग्य वस्त्र, आभूषण आदि देकर उसे विदा किया । जयकुमारने भी प्रिया के समान पृथिवीका आलिंगन कर महाराज भरतको प्रणाम किया और फिर वहाँसे चल दिया । इसलिए कहना पड़ता है कि पुण्य सम्पादन करनेवाले पुरुषोंकी सम्पदाएँ सम्पदाओं को बढ़ाती हैं। इस प्रकार नगरनिवासी लोग और याचकोंके समूह जिसके साहस की प्रशंसा कर रहे हैं ऐसा वह जयकुमार हाथीपर सवार होकर नगरसे बाहर निकला और अपनी हृदयवल्लभाको प्राप्त करनेकी इच्छा करता हुआ अपने मनके वेगसे प्रेरित शीघ्र ही गंगाके किनारे आ गया ॥ १३५ - १३८ ॥ वहाँपर सूखे वृक्षकी डालोके अग्रभागपर सूर्यकी ओर मुँह कर रोते हुए कौए को देखकर वह कुमार प्रियाके भयकी आशंका करता हुआ वैसा शूरवीर होनेपर भी प्रेमके वश मूच्छित हो गया । आचार्य कहते हैं कि ऐसे रागसे उत्पन्न हुए सुखको भी धिक्कार है । चेष्टासे हृदयकी बात को समझनेवाले और शकुनको जाननेवाले पुरोहितने उसी समय अनेक उपायोंसे सचेत कर आश्वासन दिया और कहा कि सुलोचना तो अच्छी तरह है । इस शकुनसे यही सूचित होता है कि हम लोगों को जलसे कुछ भय होगा इस प्रकार कहकर पुरोहितने जयकुमारको शान्त किया ॥ १३६ - १४१ ॥ उस पुरोहितके वचनोंको प्राणोंका सहारा मानकर वह जयकुमार शीघ्र ही आगे चला और भूलसे उसने अघाटमें ही हाथी चला दिया सो ठीक ही है, क्योंकि विचारहीन कामी पुरुषोंको हेय उपादेयका ज्ञान कहाँ होता है ?
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१ अकम्पन । २ ऋणेन तद्वान् कृतः । ३ कस्मिन् भवान्तरे । ४ वा अवधारणे । अनृण्यम् आनृणत्वम् । ५ जन्मनी | ६ चक्रिणम् । ७ जनयति । ८ याचक । ९ प्राप्तुमिच्छुः । १० रवेः । ११ ध्वनन्तम् । १२ वायसम् । 'काके तु करटारिष्टबलिपुष्टसकृत्प्रजाः । ध्वाङ्क्षात्मघोषपरभृबलिभुग्वायसा अपि ।' इत्यभिधानात् । १३ सामवचनं नीतः | १४ शाकुनिकस्य । १५ अजलोत्तरप्रदेशे । 'तीर्थं प्रवचने पात्रे लब्धाम्नाये विदां परे । पुण्यारण्ये जलोत्तारे महानद्यां महामुनी । १६ उपादेय । १७ प्रोद्गतकुम्भस्थलस्याधोभागप्रदेश कम् । 'अधः कुम्भस्य वाहीत्थं प्रतिमानमघोऽस्य यत् । इत्यभिधानम् ।