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आदिपुराणम् .. वेष्टितं वेन्द्रधनुषा नानामरणरोचिया । रोचिषेव कृताकारं पूज्यं पुण्यैश्चतुर्विधैः ॥२०॥ तुमसिंहासनासीनं भास्वन्तं वोदयादिगम् । राजराज समालोक्य बहुशो भक्तिनिर्भरः ॥१२१॥ स वा प्रणम्य तीर्थशं स्पृष्टवाऽष्टाङ्गैर्धरातलम् । कर प्रसार्य संभाव्य राज्ञवासन्नमासनम् ॥१२२॥ निजहस्तेन निर्दिष्टं दृष्टयालंकृत्य तुष्टवान् । व्यभासिष्ट समामध्ये स तदान्येन तेजसा ॥१२३॥ प्रसन्नवदनेन्दूद्यदाह्लादिवचनांशुभिः । वधूः किमिति नानीता तां द्रष्टुं वयमुत्सुकाः ॥१२४॥ वयं किमिति नाहूतास्तद्विवाहोत्सवे नवे । अकम्पनैरिदं युक्तं सनाभिभ्यो बहिष्कृताः ॥१२५॥ 'नन्वहं त्वपितृस्थाने मां पुरस्कृत्य कन्यका । त्वयाऽसौ परिणेतव्या त्वं तद्विस्मृतवानसि ॥१२६॥ इत्यकृत्रिमसामोवत्या तर्पितक्रवर्तिना । तदा विभावयन् भक्ति स्ववक्त्रं मणिकुट्टिमे ॥१२॥ नत्वाऽपश्यत्प्रसादीव प्रतिगृह्य प्रमोर्दयाम् । जयः प्राञ्जलिरुत्थाय राजराजं व्यजिज्ञपत् ॥१२८॥ काशीदेशेशिना देव देवस्याज्ञाविधायिनाम् । विवाहविधिभेदेषु प्रागप्यस्ति स्वयंवरः ॥२६॥ इति सर्वैः समालोच्य सचिवैः शास्त्रवेदिभिः । कल्याणं तत्समारब्धं देवेन कृतमन्यथा ॥१३०॥ शान्तं तत्त्वत्प्रसादेन मन्मूलोच्छेदकारणम् । रणं शरणमायात इत्येष भवतः क्रमौ ॥१३॥
सुरखेचरभूपालास्त्वत्पदाम्भोरुहालिनः । चक्रेणाक्रान्तदिक्चक्र किंकरास्तत्र कोऽस्म्यहम् ॥१३२॥ धनुषके समान अनेक प्रकारके आभरणोंकी कान्तिसे वेष्टित थे अतएव ऐसे जान पड़ते थे मानो कान्तिसे ही उनका शरीर बनाया गया हो, और चारों प्रकारके ( शुभायु, शुभनाम, शुभगोत्र और सातावेदनीय ) पुण्योंसे पूज्य थे। इस प्रकार राजराजेश्वर महाराज भरतको देखकर भक्तिसे भरे हुए जयकुमारने तीर्थकरकी तरह आठों अंगोंसे जमीनको छूकर अनेक बार प्रणाम किया। महाराज भरतने भी हाथ फैलाकर उसका सन्मान किया तथा अपने हाथसे बतलाये हुए अपने निकटवर्ती आसनपर बैठाकर प्रसन्न दृष्टिसे अलंकृत किया। इस प्रकार सन्तुष्ट हुआ जमकुमार सभाके बीच एक विलक्षण तेजसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था। ॥११६-१२३॥ तदनन्तर महाराज भरत अपने प्रसन्न मुखरूपी चन्द्रमासे निकलते हुए और सबको आनन्दित करनेवाले वचनरूपी किरणोंसे सबको प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहने लगे कि क्यों जयकुमार, तुम बहूको क्यों नहीं लाये ? हम तो उसे देखनेके लिए बड़े उत्सुक थे, इस नवीन विवाहके उत्सवमें तुमने हम लोगोंको क्यों नहीं बुलाया ? महाराज अकम्पनने अपने भाई-बन्धुओंसे हमको अलग कर दिया क्या यह ठीक किया ? अरे, मैं तो तुम्हारे पिताके तुल्य था तुम्हें मुझे आगे कर सुलोचनाके साथ विवाह करना चाहिए था, परन्तु तुम यह सब भूल गये इस प्रकार चक्रवर्तीके द्वारा स्वाभाविक शान्त वंचनोंसे सन्तुष्ट किया हुआ जयकुमार उस समय अपनी भक्तिको प्रकट करता हुआ , नमस्कार कर अपराधीके समान अपना मुंह मणियोंसे जड़ी हुई जमीनमें देखने लगा। फिर महाराज भरतसे दया प्राप्त कर हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और राजाधिराज चक्रवर्तीसे इस प्रकार निवेदन करने लगा ॥१२४-१२८॥ हे देव, आपके आज्ञाकारी काशीनरेशने विवाहविधिके सब भेदोंमें एक स्वयंवरकी विधि भी पहलेसे चली आ रही है इस प्रकार शास्त्रोंको जाननेवाले सब मन्त्रियोंके साथ सलाह कर यह उत्सव प्रारम्भ किया था परन्तु दैवने उसे उलटा कर दिया ॥१२६-१३०॥ मेरा मूलसहित नाश करनेवाला वह युद्ध शान्त हो गया इसलिए हो यह सेवक आपके चरणोंमें आया है ॥१३१॥ हे चक्रके द्वारा समस्त दिशाओंपर आक्रमण करनेवाले महाराज, अनेक देव, विद्याधर और राजा आपके चरणकमलोंके भ्रमर होकर सेवक बन रहे हैं फिर भला मैं उन १ शुभायुर्नामगोत्रसद्वेद्यलक्षणः । २ चक्रिणा । ३ दिष्ट्या ट० । प्रीत्या । ४ राजते स्म । ५ नूतनेन । ६ अना. ह्वानिताः । ७ बन्धुभ्यः । ८ अहो । ९ प्रसादवान् । प्रमादीव ल० ।