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पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व आहारस्य' यथा तेऽद्य विकारोऽयं विना त्वया । जीविकास्ति किमस्माकं प्रसीदतु विभो भवान् ॥२२॥ यद्वयं भिन्नमर्यादे त्वय्यवार्यऽम्बुधाविव । तत्तेऽवशिष्टाः पुण्येन भवत्प्रेषणकारिणः ॥२३॥ त्वं वह्निनेव केनापि पापिना विश्व वितः । उष्णीकृतोऽसि प्रत्यस्मान् शीतीमव हि वारि वा ॥२४॥ न चेदिमान् सुतान् दारान् प्रतिग्राहय पालय । मम तावाश्रयौ यामि पुरूणां पादपादषौ ॥२५॥ इति प्रसाद्य संतोप्य समारोप्य गजाधिपम् । अर्ककीर्ति पुरोधाय वृतं भूचरखेचरैः ॥२६॥ शान्तिपूजां विधायाष्टौ दिनानि विविधद्धिकाम् । महाभिषेकपर्यन्तां सर्वपापोपशान्तये ॥२७॥ जयमानीय संधार्य संधानविधिवित्तदा । नितरां प्रीतिमुत्पाद्य कृत्वैकीभावमक्षरम् ॥२८॥ 'अक्षिमालां महाभूत्या दत्वा सर्वार्थसंपदा । संपूज्य गमयित्वैनम"नुगम्य यथोचितम् ॥२६॥ तथेतरांश्च संमान्य नरविद्याधराधिपान् । सद्यो विसर्जयामास सद्रलगजवाजिभिः ॥३०॥ ते स्वदुर्णयलज्जास्तवैराः स्वं स्वमगुः"पुरम् । साधीदेवा पराधस्य प्रतिकी हि याऽचिरात्॥३१॥
जन है ? ॥२१॥ आज यह आपका विकार आहारके विकारके समान है, क्या आपके बिना हम लोगोंकी जीविका रह सकती है ? इसलिए हे प्रभो, हम लोगोंपर प्रसन्न हूजिए। भावार्थ - जिस प्रकार भोजनके बिना कोई जीवित नहीं रह सकता उसी प्रकार आपकी प्रसन्नताके बिना हम लोग जीवित नहीं रह सकते इसलिए हम लोगोंपर अवश्य ही प्रसन्न हूजिए ॥२२॥ हम लोग तो इधर-उधर भेजने योग्य सेवक हैं और आप जिसका निवारण न हो सके ऐसे समद्रके समान हैं। हे नाथ, आपके मर्यादा छोडनेपर भो जो हम लोग जीवित बच सके हैं सो अ पुण्यसे ही बच सके हैं ॥२३॥ आप पानीके समान सबको जीवित करनेवाले हैं जिस प्रकार अग्नि पानीको गरम कर देती है उसी प्रकार किसीने हम लोगोंके प्रति आपको भी गरम अर्थात् क्रोधित कर दिया है इसलिए अब आप पानीके समान ही शीतल हो जाइए ॥२४॥ यदि आप शान्त नहीं होना चाहते हैं तो इन पुत्रों और स्त्रियोंको स्वीकार कीजिए, इनकी रक्षा कीजिए, मैं हम आप दोनोंके आश्रय श्रीवृषभदेवके चरणरूपी वृक्षोंके समीप जाता हूँ ॥२५।। इस प्रकार भूमिगोचरी और विद्याधरोंसे घिरे हुए अर्ककीर्तिको प्रसन्न कर, सन्तुष्ट कर और उत्तम हाथीपर सवार कराकर सबसे आगे किया तथा सब पापोंकी शान्तिके लिए आठ दिन तक बड़ी विभतिके साथ महाभिषेक होने पर्यन्त शान्तिपूजा की। मेलमिलापकी विधिको जाननेवाले अकम्पनने जयकुमारको भी वहाँ बुलाया और उसी समय सन्धि कराकर दोनोंमें अत्यन्त प्रेम उत्पन्न करा दिया तथा कभी न नष्ट होनेवाली एकता करा दी। तदनन्तर अर्ककीर्तिको बड़े वैभव और सब प्रकारकी धनरूप सम्पदाओंके साथ-साथ अक्षमाला नामकी कन्या दी, अच्छा आदर-सत्कार किया और उनकी योग्यताके अनुसार थोड़ी दूर तक साथ जाकर उन्हें बिदा किया। इसी प्रकार अच्छे-अच्छे रत्न, हाथी और घोड़े देकर अन्य भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंका सन्मान कर उन्हें भी शीघ्र ही बिदा किया॥२६-३०॥ अपने अन्यायके कारण उत्पन्न हुई लज्जासे जिनका वैर दूर हो गया है ऐसे वे सब लोग अपने-अपने नगरको चले गये, सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धि वही है जो भाग्यवश हुए अपराधका शीघ्र ही प्रतिकार कर लेती
- १ आहारो यथा विनाशयति । २ विश्वेषां जीवनं यस्मात् स विश्वजीवितः । विश्वजीवनः अ०, १०, स०, इ०, ल० । ३ जलम् । ४ इव । ५ एवं न चेत् । ६ प्रतिग्रहं कुरु । ७ अग्रे कृत्वा । ८ अन्योन्यसंबन्धं कृत्वा ।। ९ अविनश्वरम् । १० अक्षमालाम् अ०, स०, इ०, ल०। ११ अर्ककीर्तिम् । १२ किचिदन्तरं गत्वा । १३ निरस्त । १४ स्वां स्वामगुः पुरीम् द०, अ०, स०। १५ जगुः । १६ वाज्जातापराधस्य । १७ प्रतिविधानं करिष्यति ।