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पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व
अथ मंघस्वरो गत्वा 'प्रथमानपराक्रमः । मथितारातिदुर्गर्वः पृथु स्वावासासितः ॥१॥ स्वयं च संचिताघानि हन्तुं स्तुत्वा जिनेशिनः । अकम्पनमहाराजः समालोक्य सुलोचनाम् ॥ २॥ कृताहारपरित्यागनियोगामायुधस्तदा। सुप्रभातपर्युष्टिं कायोत्सर्गग सुस्थिताम् ॥ ३॥ सर्वशान्तिकरी ध्याति ध्यायन्ती स्थिरचेतसा । धामैका व्यनि पन्दा जिनेन्द्राभिमुखी मुदा ॥ ४ ॥ समभ्यच्य समाश्वास्य प्रशस्य बहुशो गुणान् । भवन्माहात्म्यतः पुत्रि शा.तं सर्वममङ्गलम् ॥ ५॥ प्रतिध्वस्तानि पापानि नियाममुसहर । इत्युक्षिप्तकरामुक्त्वा पुरस्कृत्य सुतां सुतैः ॥ ६॥ हृष्टः सुप्रभया चामा राजगेहं प्रविश्य सः। याहि पुत्रि निजागारं विसज्येति सुलोचनाम् ॥ ७ ॥ अन्यथा चिन्तितं कार्य देवेन कृतमन्यथा । इति कर्तव्यतामृटः 'लुश्रुतादिभिरिद्वधीः ॥ ८॥ . औत्पत्तिक्यादि धीभेदैःलोच्य सचिवोत्तमैः । विद्याधरधराधीशान् विपाशीकृत्य कृत्यवित् ॥ ९॥ विश्वानाश्वास्य तद्योग्यैः "सामसारुदीरितैः । सम्यग्विहितसत्कारः स्नानवस्त्रासनादिभिः ॥१०॥ "कमार वंशी युप्माभिर्विहिती वर्धितौ च नः" । तरविषमयोऽप्यति'यतोऽभून्न ततः क्षयम् ॥११॥
अथानन्तर-प्रसिद्ध पराक्रमका धारक और शत्रुओंके मिथ्या अभिमानको नष्ट करनेवाला जयकुमार अपने विशाल निवासस्थानमें जाकर ठहर गया ॥ १ ॥ इधर महाराज अकम्पनने स्वयं संचित किये हुए पाप नष्ट करनेके लिए श्री जिनेन्द्रदेवकी स्तुति की और फिर जिसने यद्ध समाप्त होनेतक आहारके त्याग करनेका नियम ले रखा है, माता सुप्रभा जिसके समीप बैठी हुई है, जो कायोत्सर्गसे खड़ी हुई है, स्थिरचित्तसे सब प्रकारकी शान्ति करनेवाला धर्मध्यान कर रही है, एकाग्र मनसे निश्चल है और आनन्दसे जिनेन्द्रदेवके सन्मुख खड़ी है ऐसी सुलोचनाको देखकर उसका सत्कार किया, आश्वासन देकर उसके गुणोंको अनेक बार प्रशंसा की तथा इस प्रकार शब्द कहे-'हे पुत्रि, तुम्हारे माहात्म्यसे सब अमंगल शान्त हो गये हैं, सब प्रकारके पाप नष्ट हो गये हैं, अब तू अपने नियमोंका संकोच कर ।' ऐसा कहकर उन्होंने हाथ जोडकर खडी हुई सुलोचनाको आगे किया और राजपुत्रों तथा रानी सुप्रभाके साथ-साथ राजभवनमें प्रवेश किया। फिर 'हे पुत्रि ! तू अपने महल में जा' ऐसा कहकर सुलोचनाको बिदा किया ॥२-७॥ पूनः यह कार्य अन्य प्रकार सोचा गया था और देवने अन्य प्रकार कर दिया अब क्या करना चाहिए इस विषयमें मूढताको प्राप्त हुए अतिशय बुद्धिमान् महाराज अकम्पनने औत्पत्तिकी आदि ज्ञानके भेदोंके समान सुश्रुत आदि उत्तम मन्त्रियोंके साथ विचार कर विद्याधर राजाओंको छोड दिया। फिर कार्यको जाननेवाले उन्हीं अकम्पनने बडी शान्तिसे उनके योग्य कहे हए वचनोंसे उन सबको आश्वासन देकर स्नान, वस्त्र, आसन आदिसे सबका अच्छी तरह सत्कार किया ॥८-१०।। तथा अर्ककीर्तिसे कहा कि 'हे कुमार ! हमारे नाथवंश और सोम
१ प्रकाशमान । २ स्वावासगृहे स्थितः । ३ युद्धावसानपर्यन्तम् । ४ निजजननी विहितरक्षाजिनपूजादिपरिचर्याम । ५ ध्यानम् । ६ एकाग्रत्वेन निश्चलाम् । ७ नियमम् । ८ त्यज । ६ गच्छ । १० सुश्रुतप्रभृतिमन्त्रिभिः । ११ जन्मव्रतनियमोषधतपोभिरुत्पन्नज्ञानभेदैः । १२ नागपाशबन्धनं गोत्रयित्वा। १३ साम्नां सारैः । १४ वचनैः। १५ हे अर्ककोर्ते । १६ नायवंशमोमवंशो। १७ कृतौ। १८ जयस्य अरमाकं च । १९ यस्मात् पुरुषात् । २० मंजातम् ।