Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 441
________________ ४२३ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व मालिनी परिणतपरितापान्स्वेदधारी विलक्षो' विगलितविभुभावो विह्वशीभूतचेताः ।. अधित विधिविधानं चिन्तयश्चक्रिसूनु विरहविधुरवृत्तिं वीरलक्ष्मीवियोगे ॥३६३॥ वसन्ततिलकम् येषामयं जितसुरः समरे सहाय स्तानप्यहं कृतरतिः समुपासयामि । धुर्योऽयमेव यदि काऽन्न विलम्बनेति मत्वेव मङ्क्षु समियाय जयं जयश्रीः ॥३६॥ मालिनी स१ १२बहुतरमरा जन्प्रोच्छितान् शत्रुपासून्" १द्रुतमिति समयित्वा वृष्टिभिः सायकानाम् । उपगतहरिभूमिः प्राप्य भूरिप्रताप दिनकर इव "कन्यासंप्रयोगाभिलाषी ॥३६५॥ शार्दूलविक्रीडितम् सौभाग्येन यदा स्ववक्षसि धृता माला तदैवापर वीरोवीध्रमवार्यवीर्यविभवो विभ्रश्य' विश्वद्विषः । वीरश्रीविहितं दधौ स शिरसाऽम्लानं यशः शेखरं लक्ष्मीमान् विदधाति साहससखः किंवा न पुण्योदये" ॥३६६॥ . . जाता है । ३६२ ॥ प्राप्त हुए सन्तापसे जिसे पसीना आ रहा है, जो लज्जित हो रहा है, 'मैं सबका स्वामी हूँ' ऐसा अभिप्राय जिसका नष्ट हो गया है, जिसका चित्त विह्वल हो रहा है, और जो भाग्यकी गतिका विचार कर रहा है ऐसे अर्ककोतिने वीरलक्ष्मीका वियोग होनेपर उसके विरहसे विधुर वृत्ति धारण की थी ॥ ३६३ ।। देवोंको जीतनेवाला यह जयकुमार युद्ध में जिनकी सहायता करता है मैं उनकी भी बड़े प्रेमसे उपासना करती हूँ, फिर यदि यह ही सबमें मुख्य हो तो इसमें विलम्ब क्यों करना चाहिए ऐसा मानकर ही मानो विजयलक्ष्मी जयकुमारके पास बहुत शीघ्र आ गयी थी ॥ ३६४ ॥ इस प्रकार बाणोंकी वर्षासे ऊपर उठी हुई शत्रुरूपी धूलिको शीघ्र ही नष्ट कर पराक्रमके द्वारा सिंहका स्थान प्राप्त करनेवाला और अब कन्याके संयोगका अभिलाषी जयकुमार उस सूर्यकी तरह बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था जो कि सिंह राशिपर रहकर कन्या राशिपर आना चाहता है ।।३६५। जिसकी पराक्रमरूपी सम्पत्तिका कभी कोई निवारण नहीं कर सकता ऐसे शूरवीर जयकुमारने जिस समय सौभाग्यके वशसे अपने वक्षःस्थलपर माला धारण को थी उसी समय सब शत्रुओंको नष्ट कर वीरलक्ष्मीका बना हुआ तथा कभी नहीं मुरझानेवाला यशरूपी दूसरा सेहरा भी उसने अपने मस्तकपर धारण किया था, सो ठीक ही है क्योंकि जो लक्ष्मीमान् है, साहसका मित्र है और जिसके पुण्य १ विस्मयान्वितः । २ विभुत्वरहितः । ३ धरति स्म ।. ४ कर्मभेदम् । ५ विरहविक्लवस्य वर्तनम् । ६ जयकुमारः । ७ धुरंधरः । ८ कालक्षेपः । ९ शीघ्रम् । १० जयकुमारम् । ११ जयः । १२ अत्यधिकम् । १३ विराजति स्म । १४ उन्नतान् । १५ रेणुन् । १६ शीघ्रम् । १७ प्राप्तशक्रपदः । प्राप्तसिंहराशिस्थानश्च । १८ संतापम्, प्रभावम् । १९ सुलोचनासङ्गाभिलाषी। कन्याराशिगतसंप्रयोगाभिलाषी च । २० शुभ्रम् । २१ पातयित्वा । २२ कृतम् । २३ साहस एव सखा । २४ पुष्पोदये ल०, अ०, ५०, स०, इ० ।

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