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पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व
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तस्मै कन्यां गृहाणेति नास्माभिः सा समर्पिता । आराधकस्य दोषोऽसौ यत् प्रकुप्यन्ति देवताः ॥४३॥ `मयैव विहिताः सम्यक् वर्धिता बन्धवोऽपि नः । स्निग्धाश्च कथमेतेषां विदधामि विनिग्रहम् ॥४४॥ इत्येतद्देव मा मँस्थाः स्यात् सदोषो यदि त्वया । कुमारोऽपि निगृह्येत न्यायोऽयं वदुपक्रमः ॥ ४५॥ तदादिश' विधेयको दण्डस्त्रविधेऽपि नः । किंविधः किं परिक्लेशः किं वार्थहरणं प्रभो ॥ ४६ ॥ तवादेशविधानेन नितरां कृतिनो वयम् । इहामुत्र च तदेव यथार्थमनुशाधि नः ॥ ४७ ॥ इति प्रश्रयणी वाणीं निगम हृदयप्रियाम् । सुमुखो राजराजस्य व्यरंसीत् करसंज्ञया ॥ ४८ ॥ सतां चर्चासि चेतांसि हरन्त्यपि हि रक्षसाम् । किं पुनः सामसाराणि ' तादशां" समतादृशाम् ॥ ४९ ॥ इति प्रसन्नोक्त्या प्रफुलवदनाम्बुजः । उपसिंहासनं चक्री "निसृष्टार्थं निवेश्य तम् ॥ ५० ॥ अकम्पनैः किमित्येवमुदीर्य प्रहितो'' भवान् । पुरुभ्यो निर्विशेषास्ते सर्वज्येष्टाश्च सम्प्रति ॥ ५१॥ गृहाश्रमे त एवार्थ्यास्तैरेवाहं च बन्धुमान् । निषेद्वारः प्रवृत्तस्य ममाप्यन्यायवर्त्मनि ॥ ५२॥ पुरवो मोक्षमार्गस्य गुरवो दानसन्ततेः । श्रेयांश्व चक्रिणां वृत्तेर्यथेहास्म्यहमग्रणीः ॥ ५३ ॥ तथा स्वयंवरस्येमं नाभूवन् यद्यकम्पनाः । कः प्रवर्तयिताऽन्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥५४॥
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॥ ४२ ॥ ' तुम इस कन्याको ग्रहण करो' ऐसा कहकर तो मैंने जयकुमार के लिए दी नहीं थी, तथापि देवता जो कुपित हो जाते हैं उसमें देवताका नहीं किन्तु आराधना करनेवाले ही का दोष समझा जाता है || ४३ || ये सब वंश मेरे ही बनाये हुए हैं, मेरे ही बढ़ाये हुए हैं, मेरे ही भाई हैं और मुझसे ही सदा स्नेह रखते हैं इसलिए इनका निग्रह कैसे करूँ ऐसा आप मत मानिए क्योंकि यदि आपका पुत्र भी दोषी हो तो उसे भी आप दण्ड देते हैं, इस न्यायका प्रारम्भ आपसे ही हुआ है । इसलिए हे प्रभो, आज्ञा दीजिए कि इस अपराधके लिए हम लोगोंको तीनों प्रकारके दण्डों में से कौन-सा दण्ड मिलने योग्य है ? क्या फाँसो ? क्या शरीरका क्लेश अथवा क्या धन हरण कर लेना ? || ४४-४६ ।। हे देव, आपकी आज्ञा पालन करनेसे ही हम लोग इस लोक तथा परलोक में अत्यन्त धन्य हो सकेंगे इसलिए आप अपराधके अनुसार हमें अवश्य दण्ड दीजिए || ४७ ।। इस प्रकार नम्रतासे भरे हुए और हृदयको प्रिय लगनेवाले वचन कहकर वह सुमुख दूत राजराजेश्वर चक्रवर्तीके हाथके इशारेसे चुप हो गया ।। ४८ ।। जब कि सज्जन पुरुषोंके वचन राक्षसोंके भी चित्तको मोहित कर लेते हैं तब सबको समान दृष्टिसे देखनेवाले भरत-जैसे महापुरुषोंके शान्तिपूर्ण चित्तकी तो बात ही क्या है ? ||४९ || जिनका मुखरूपी कमल प्रफुल्लित हो रहा है ऐसे चक्रवर्तीने 'यहाँ आओ' इस प्रकार प्रसन्नता भरे वचनोंसे उस दूतको अपने सिंहासन के निकट बैठाकर उससे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया कि 'महाराज अकम्पन ने इस प्रकार कहकर आपको क्यों भेजा है ? वे तो हमारे पिताके तुल्य हैं और इस समय हम सभीमें ज्येष्ठ हैं ।। ५०-५१ ॥ गृहस्थाश्रममें तो मेरे वे ही पूज्य हैं, उन्हीं से मैं भाई-बन्धु वाला हूँ, औरकी क्या बात ? अन्यायमार्ग में प्रवृत्ति करनेपर वे मुझे भी रोकनेवाले हैं ।। ५२ ।। इस युगमें मोक्षमार्ग चलानेके लिए जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव गुरु हैं, दानकी परम्परा चलाने के लिए राजा श्रेयांस गुरु हैं और चक्रवर्तियोंकी वृत्ति चलाने में मैं मुख्य हूँ, उसी प्रकार स्वयंवरकी विधि चलाने के लिए वे ही गुरु हैं । यदि ये अकम्पन महाराज नहीं होते तो इस स्वयंवर मार्गका चलानेवाला दूसरा कौन था ? यह मार्ग अनादि कालका है
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१०.
१ जयाय । २ भरतेनैत्र । ३ स्नेहिता । ४ त्वया प्रथमोपक्रान्तः । ५ तत् कारणात् । ६ दोषे । ७ नियामय । ८ तूष्णीं स्थितः । ९ राक्षसानाम् । १० वचांसि साम्नां साराणि चेत् । ११ सताम् । १२ समत्वनेत्राणाम् । १३ अत्रागच्छेति । १४ सिंहासनसमीपे । १५ दूतमुख्यम् । १६ प्रेषितः । १७ पुरुजिनेभ्यः । गुरुभ्यो अ०, म०, ल०, इ०, स० । १८ अकम्पना एव । १९ स्वयंवरमार्गः ।