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आदिपुराणम्
दुराचारनिषेधेन त्रयं धर्मादि वर्धते । कारणे सति कार्यस्य किं हानिर्दृश्यते क्वचित् ॥ ६६॥ व्ययो में विक्रमस्यास्तां' शरस्याप्यत्र न व्ययः । वधे प्रत्युत धर्मः स्याद् दुष्टस्यांहः कुतो भवेत् ॥ ६७ ॥ कीर्तिर्विख्यातकीर्त नार्क कीर्ते विनङ्क्षयति । अकीर्तिरनिवार्या स्यादन्यायस्यानिषेधनात् ॥ ६८ ॥ तस्य' मेऽयशसः कीर्तेर्भवद्भिर्यदुदाहृतम् । भवेत्तत्सत्य संवादि शीतकोऽस्म्यत्र यद्यहम् ॥ ६६ ॥ यूयमाध्वं ततस्तूष्णीमुष्णकोऽहमिदं प्रति । धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च मा निषेधि हितैषिभिः ॥७०॥ एवं मन्त्रिणमुल्लङ्घय कुधीर्वा दुर्ग्रहाहितः । सेनापतिं समाहूय प्रत्यासन्नपराभवः ॥७१॥ कथयित्वा महीशानां सर्वेषां रणनिश्चयम् । भेरीमास्फालयामास जगत्त्रय भयप्रदाम् ॥७२॥ अनुभेरीवं सद्यः सत्यावास" महीभुजाम् । "नटद्भटभुजा स्फोटचटुलाराव " निष्ठुरः ॥ ७३ ॥ करिकण्डस्फुटोद्घोषघण्टाटङ्कारभैरवः । जितकण्ठीरवारावहय हेषाविभीषणः ॥७४॥ चलद्धरिखुरोद्घट्टकठोरध्वाननिर्भरः । पदातिपद्धति प्रोद्यद्भूरिभूरख भीवहः " ॥७५॥ "स्पन्दरस्यन्दनचक्रोत्थ पृथुचीत्कार भीकरः । धनुः सज्जीक्रियासक्तगुणास्फालनकर्कशः ॥ ७६ ॥ प्रतिध्वनित दिग्भित्तिस्सर्वानिकभयानकः । बलकोलाहलः कालमिवाह्नातुं समुद्यतः ॥ ७७ ॥
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ही मर जावेगा तब उस विधवासे मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा ॥ ६५ ॥ दुराचारका निषेध करनेसे धर्म आदि तीनों बढ़ते हैं, क्योंकि कारणके रहते हुए क्या कहीं कार्यकी हानि देखी जाती है ? ।। ६६ ।। इस काम में मेरे पराक्रमका नाश होना तो दूर रहा मेरा एक बाण भी खर्च नहीं होगा बल्कि दुष्टके मारनेमें धर्म ही होगा, पाप कहाँसे होगा ? ॥ ६७ || ऐसा करनेसे प्रसिद्ध कीर्तिवाले मुझ अर्ककीर्तिकी कीर्ति भी नष्ट नहीं होगी परन्तु हाँ, यदि इस अन्यायका निषेध नहीं करता हूँ तो किसीसे निवारण न करने योग्य मेरी अपकीर्ति अवश्य होगी || ६८ || तुमने जो मेरी अपकीर्ति और उसकी कीर्ति होनेका उदाहरण किया है सो यदि मैं इस विषय में मन्दोद्योगी हो जाऊँ तो यह आपका निरूपण सत्य हो सकता है || ६६ ॥ इसलिए तुम लोग चुप बैठो, मैं इस कार्य में उष्ण हूँ - क्रोधसे उत्तेजित हूँ । हित चाहनेवालोंको धर्म, अर्थ तथा यश बढ़ाने वाले कार्यों का कभी निषेध नहीं करना चाहिए ॥ ७०॥ इस प्रकार जिसका पराभव निकट है और जो खोटे हठसे युक्त है ऐसे दुर्बुद्धि अर्ककीर्तिने मन्त्रीका उल्लंघन कर सेनापतिको बुलाया और सब राजाओंसे युद्धका निश्चय कहकर तीनों लोकोंको भय उत्पन्न करनेवाली भेरी बजवायी ॥७१-७२ ॥ जो राजाओंके प्रत्येक डेरेमें भेरीके शब्दोंके साथ ही साथ बहुत शीघ्र नाचते हुए योद्धाओं भुजाओं की ताड़नासे उत्पन्न होनेवाले चंचल शब्दोंसे कठोर है, जो हाथियोंके गलों में स्पष्ट रूपसे जोर जोरका शब्द करनेवाले घण्टाओंकी टंकारसे भयंकर है, जो सिंहोंकी गर्जनाको जीतनेवाले घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे भीषण है, जो चलते हुए घोड़ोंके खुरोंके संघटनसे उठनेवाले कठोर शब्दोंसे भरा हुआ है, जो पैदल सेनाके पैरोंकी चोटसे उत्पन्न हुए पृथिवीके बहुत भारी शब्दोंसे भयंकर है, जो चलते हुए रथोंके पहियोंसे उत्पन्न होनेवाले बहुत भारी चीत्कार शब्दोंसे भय पैदा करनेवाला है, जो धनुष तैयार करनेके लिए लगायी हुई डोरीके आस्फालनसे कठोर है, जिसने दिशारूपी दीवालोंको प्रतिध्वनिसे युक्त कर दिया है और जो सब प्रकारके नगाड़ोंसे भयानक हो रहा है ऐसा बहुत भारी सेनाका कोलाहल उठा सो ऐसा जान पड़ता
१ आस्तां तावदित्यध्याहारः । २ पापः । ३ विनाशमेष्यति । ४ जयस्य । ५ यदुदाहरणम् । ६ सत्येन अविपरीतप्रतिपत्तिकम् । सत्येन एकवादोपेतं वा । ७ मन्दः | ८ पटुः । 'दक्षे तु चतुरपेशलपटवः सुत्थान ओष्णश्च' इत्यभिधानात् । ९ न निषिध्यते स्म । १० स्वीकृतः । १९ शिबिरं प्रति शिबिरं प्रति । १२ नवस्थिता । १३ ध्वनि: । १४ पादहति । १५ भूमिध्वनिना भयंकरः । १६ चलत् ।