Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 431
________________ ४१३ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व दुर्निरीक्ष्यः 'करैस्तीक्ष्णैः संतप्तनिजमण्डलः । अलं कुवलयध्वंसी दुस्सुतो दुर्मतिस्तुतः ॥२६॥ निस्सहायो निरालम्बोऽत्यसोढा परतेजसाम् । "सिंहराशिश्चलः क्रूरः सहसोच्छित्य मूर्द्धगः ॥२६९॥ पापरोगी परप्रेयों रविविषममागंगः । रक्तरुक सकलद्वेषी ० "वर्धिताशोऽक्रमाग्रगः ॥२७॥ "सता बुधेन मित्रेण "गुरुणाऽप्यस्तमाश्रयत् । बहुदोषो' भिषग्वर्यैर्दुश्चिकित्स्य इधातुरः ॥२७॥ तदा बलयामाल्याः श्रित्वा बद्धरुषो नृपौ । इत्यधयं निशायुद्धमनुव" न्यषेधयन् ॥२७२॥ ताभ्यां तत्रैव सा रात्रिनेत्तुमिष्टा रणागणे । भटतीप्रवणासहयवेदनारावभीषणे ॥२७३॥ क्या है ? ॥ २६७ ॥ जो बड़ी कठिनतासे देखा जाता है, अपनी किरणोंसे तीक्ष्ण-ऊष्ण है, जिसने अपना मण्डल भी सन्तप्त कर लिया है, जो कुवलय अर्थात् कुमुदोंका ध्वंस करनेवाला है, बड़े कष्टसे जिसका उदय होता है अथवा जिसका पुत्र - शनि दुष्ट है, दुर्बुद्धि लोग ही जिसकी स्तुति करते हैं, जो सहायरहित है, आधाररहित है, जो चन्द्र आदि ज्योतिषियोंका तेज सह नहीं सकता, सिंह राशिपर है, चंचल है, क्रूर है, सहसा उछलकर मस्तकपर चलता है, पाप रोगी है, दूसरेके सहारेसे चलता है, विषममार्ग - आकाशमें चलता है, रक्तरुक्-लाल किरणोंवाला है, सकल - कलासहित-चन्द्रमाके साथ द्वेष करनेवाला है, दिशाओंको बढ़ानेवाला है और पैररहित-अरुण नामका सारथि जिसके आगे चलता है, ऐसा सूर्य, बुधग्रह और गुरु ( बृहस्पति ग्रह ) नामके सज्जन मित्रोंके साथ होनेपर भी अच्छे-अच्छे वैद्य भी जिसका इलाज नहीं कर सकते ऐसे बहुदोषी-अनेक दोषवाले ( पक्षमें रात्रिवाले ) रोगीके समान अस्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट होनेके कारण जिसकी ओर कोई देख भी नहीं सकता है, जो अधिक टैक्स वसूल करनेके कारण तीक्ष्ण है, जो अपने परिवारके लोगोंको भी सन्ताप देनेवाला है। कुवलय अर्थात् पृथिवीमण्डलका खूब नाश करनेवाला है, जिसका पुत्र खराब है, मूर्ख ही जिसकी स्तुति करते हैं, जो सहायक मित्रोंसे रहित है, दुर्ग आदि आधारोंसे रहित है, अन्य प्रतापी राजाओंके प्रतापको सहन नहीं करता है, सिंह राशिमें जिसका जन्म हुआ है, चञ्चल है, निर्दय है, जराजरा सी बातोंमें उछलकर शिरपर सवार होता है - असहनशील है, बरे रोगोंसे घिरा हुआ है, दूसरेके कहे अनुसार चलता है, विषम मार्ग-अन्याय मार्गमें चलता है, रक्तरुक्-जिसे खूनकी बीमारी है, जो सबके साथ द्वेष करता है, जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है और बिना क्रमके प्रत्येक कार्यमें आगे आगे आता है, ऐसे अनेक दोषवाले राजाका लाइलाज रोगीकी तरह बुद्धिमान् मित्र और सज्जन गुरुके साथ होनेपर भी नाश होता ही है ॥२६८-२७१॥ उस समय दोनों सेनाओंके मन्त्रियोंने क्रोधित हुए उन दोनों राजाओंके पास जाकर रात्रिमें युद्ध करना अधर्म है ऐसा नियम कर उन्हें युद्ध करनेसे रोका ॥ २७२ ॥ उन दोनोंने योद्धाओंके तीव्र घावोंकी असह्य वेदनाजनित चिल्लाहटसे भयंकर उसी रणके मैदानमें रात्रि व्यतीत करना अच्छा समझा १-स्तीक्ष्णाः अ०, ५०, स०, इ०, ल०। २ कष्टोत्पत्तिः अशोभनपुत्रश्च । ३ व्यसोढा ट० । ४ प्रदोपानां शत्रूणां च तेजसाम् । ५ सिहराशिस्थितः। ६ ऊर्ध्वगो भूत्वा । ७ शिरसा गच्छन् । ८ कुष्ठरोगी। ९ रक्तकिरणः । रक्तरोगी च रक्तानां घातको वा। १० चन्द्रद्वेषी सकलजनद्वेषी च । ११ वद्धितदिक् वद्धिताभिलाषश्च । १२ अनूर्वग्रगामी। 'सूरसूतोऽरुणोऽनुरुः' इत्यभिधानात् । अक्रमाग्रगामी च । १३ उत्कृष्टेन विद्यमानेनेति च । १४ सोमसुतेन । विदुषा च । १५ बहस्पतिना, उपदेशकेन सहितोऽपीत्यर्थः । १६ प्रचुरराशिः । वातदोषवांश्च । १७ व्याधिपीडित । १८ निर्बन्धं कृत्वा । १९ अर्ककी तिजयकुमाराभ्याम् ।

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