Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 437
________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व अष्टवन्द्रान् सखी कुर्वन् न चन्द्रोपमा युधः । स्वोत्यातकेतु संकाशचक्रकेतूपलक्षितः ॥३२४॥ प्रत्यायातमहावातविहतस्वजवैः शरैः । विध्यन्म ध्यन्दिनाकं वा सुमनःक्षतहेतुभिः ॥३२॥ जयं शत्रुदुरालोकं ज्वलत्तेजोमयं स्मयात् । कलभो वाऽगमद् वारिं प्रेरितः खलकर्मणा ॥३२६॥ जयोऽपि शरसन्तानघनी कृत्यधनाधनः । सहार्ककीर्तिमर्केण कुर्वन् विनिहतप्रभम् ॥३२७॥ प्रतीयायान्तरे छिन्दन् रिपुप्रहितसायकान् । शराश्चास्य पुरो धावन् "बध्नस्येवोदयेऽशवः ॥३२८॥ अच्छेत्सी"च्छत्रमस्त्राणि वैजयन्ती च दुर्जयः । जयोऽर्ककीर्तेरौद्धत्यं विहत्य विनिनीषया ॥३२९॥ अष्टचन्द्रास्तदाभ्येत्य विद्याबलविज़म्भणात् । न्यषेधयन् जयस्येपूनम्भोदा वा रवेः करान् ॥३३०॥ भुजबल्यादयोऽ''भ्येयुर्योधुं हेमाङ्गद क्रुधा । सानुजं सिंहसखातं सिंहसङ्घ इवापरः ॥३३१॥ "सानुजोऽनन्तसेनोऽपि प्राप मेघस्वरानुजान् ।' आङ्गरेयो यथा यूथः कलिङ्गज"मतङ्गजान् ॥३३२॥ अन्येऽप्यन्यांश्च भूपाला भूपालान् कोपिनस्तदा । आनिपेतुः कुलाद्रीन्वा संचरन्तः कुलाचलाः॥३३३॥ नास्त्येषामीहशी शक्तिर्वियेयमिति विद्यया । जयो युद्धाय समद्धस्तदा 'मित्रभुजङ्गमः ॥३३४॥ हो रहा है, कान्ति नष्ट हो गयी है, युद्धके नष्ट चन्द्रोंके समान अष्टचन्द्र विद्याधरोंको जिसने अपना मित्र बनाया है, जो अपना अनिष्ट सूचित करनेवाले धमकेतुके समान चक्रके चिह्नवाली ध्वजासे सहित है, और उलटी चलनेवाली तेज वायुसे जिनका वेग नष्ट हो गया है ऐसे देवताओंका घात करनेवाले बाणोंसे जो दोपहरके सूर्यपर प्रहार करता हुआ-सा जान पड़ता है, ऐसा अर्ककीर्ति धीरे चलनेवाले घोड़ोंसे जुते हुए जेलखानेके समान अपने रथपर बैठकर, शत्रु जिसे देख भी नहीं सकते और जो जलते हुए तेजके समान है ऐसे जयकुमारपर बड़े अभिमानसे इस प्रकार आया जिस प्रकार कि हाथी पकड़नेवालोंके क्रूर व्यापारसे प्रेरित होता हुआ हाथीका बच्चा अपने बंधनेके स्थानपर आता है ॥३२३-३२६।। बाणोंके समूहसे मेघोंको सच करनेवाला जयकुमार भी सूर्यके साथ-साथ अर्ककीतिको प्रभारहित करता तथा शत्रुके द्वारा छोड़े हए बाणोंको छेदन करता हआ सामने आया और जिस प्रकार उदयकालमें सूर्यकी किरणें उसके सामने जाती हैं उसी प्रकार उसके द्वारा छोड़े हुए बाण ठीक उसके सामने जाने लगे ॥३२७-३२८।। बड़ी कठिनाईसे जीते जाने योग्य जयकुमारने अर्ककीतिको हटानेकी इच्छासे उसका उद्धतपना नष्ट कर, उसका छत्र शस्त्र तथा ध्वजा सब छेद डाली ॥३२९।। जिस प्रकार मेघ सूर्यको किरणोंको रोक लेते हैं उसी प्रकार उस समय अष्टचन्द्रोंने आकर अपनी विद्या और बलके विस्तारसे जयकुमारके बाण रोक लिये थे ॥३३०॥ जिस प्रकार एक सिंहोंका समूह दूसरे सिंहोंके समूहपर आ पड़ता है उसी प्रकार भुजबली आदि भी बड़े क्रोधसे छोटे भाइयोंके साथ खड़े हए हेमांगदसे लड़नेके लिए उसके सन्मख आये ॥३३१॥ जिस प्रकार अंगरदेशमें उत्पन्न हुए हाथियोंका समूह कलिंग देशमें उत्पन्न हुए हाथियोंपर पड़ता है उसी प्रकार अनन्तसेन भी अपने छोटे भाइयोसहित जयकुमारके छोटे भाइयोंके सामने जा पहुँचा ॥३३२।। उस समय और भी राजा लोग क्रोधित होते हए अन्य राजाओंपर इस प्रकार जा टे मानो कुलाचल कुलाचलोंपर टूट पड़ रहे हों ॥३३३॥ इन मेरे पक्षवालोंकी न तो ऐसी शक्ति है १ युद्धस्य । २ निजविनाशहेतुकजयसमान । ३ प्रतिकूलमायात । ४ मध्याह्नमिव । मध्याह्नरविमण्डलाभिमुखं मुक्ता शरा यथा स्वशरीरे पतन्ति तद्वदित्यर्थः । ५ गर्वात् । ६ गजपतनहेतुगतम् । ७ निविडीकृत । ८ अभिमुखं जगाम । ९ शत्रुविसर्जित । १० रवेः । ११ चिच्छेद । १२ ध्वजाम् । १३ निराकरणेच्छया नेतुमिच्छया वा । १४ सम्मुखमागत्य । १५ अभिमुखमाजग्मुः । १६ निजानुजसहितः । १७ अङ्गरदेशे भवः । आङ्गकेयो ल० । १८ कलिङ्गदेशे भवः । १९ प्राप्नुवन्ति स्म । अभिपेतुः ल०, इ०, स०, प० । २० सञ्चलन्तः कुलाद्रयः। ल। २१ पूर्व मुनेर्धर्मश्रवणज्जातनागराजः ।

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