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आदिपुराणम्
विदित्वा विष्टराकम्पाज्जयं संप्राप्य सादरः । नागपाशं शरं चार्द्धचन्द्रं दत्त्वा ययावसौ ॥३३॥ तं''सहस्रसहस्रांशुस्फुरदंशुप्रभास्वरम् । कौरवः शरमादाय वज्रकाण्डे प्रयोजयन् ॥३३६॥ हत एव सुतो भत्तुर्भुवोऽन नेति सम्भ्रमम् । नरविद्याधराधीशा महान्तमुदपादयन् ॥३३७॥ रथान्नव तथा दुष्टानष्टचन्द्रान् ससारथीन् । सशरो मस्मयामास शस्त्राणि च यथाऽशनिः ॥३३८॥ छिन्नदन्तकरो दन्तीवान्तको वा हतायुधः । भग्नमानः कुमारोऽस्थाद् धिक्कष्टं चेष्टितं विधेः ॥३३६॥ इति. दत्तग्रहं वीरं गज वा पादपाशकैः । अपायुधैरुपायज्ञेविधिज्ञस्तम जीग्रहत् ॥३०॥ तच्छौयं यत्पराभूतेःप्राक प्राप्तपरिभूतिभिः । यत्पश्चात्साहसं धाष्टात् "स द्वितीयः पराभवः ॥३४१॥ सोऽन्वयः स पिता ताहक पदं सा सैन्यसंहतिः । तस्याप्यासीदवस्थेयमुन्मार्ग के न पीडयेत् ॥३४२॥ वीरपट्टेन बद्धोऽयं चक्रिणानेन तत्सुतः । व्रणपट्टपदं नीतः पश्य कार्यविपर्ययम् ॥३४३॥ "पतत्पतङ्गसङ्काशमर्ककीर्तिमनायुधम् । स्वरथे स्थापयित्वोच्चरारुह्यानेकपं स्वयम् ॥३४॥ विपक्षखगभूपालान् नागपाशेन पाशिवत् । निष्पन्दं निर्जितारातियमंसीत् सिंहविक्रमान् ॥३४२॥
और न यह विद्या ही है ऐसा समझकर जयकुमार स्वयं युद्धके लिए तैयार हुआ, उसी समय उसका मित्र सर्पका जीव जो कि देव हुआ था आसन कम्पित होनेसे सब समाचार जानकर बड़े आदरके साथ जयकुमारके पाम आया और नागपाश तथा अर्द्धचन्द्र नामका बाण देकर चला गया.॥३३४-३३५।। जो हजार सूर्यकी चमकती हुई किरणोंके समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा वह बाण लेकर जयकुमारने अपने वज्रकाण्ड नामके धनुषपर चढ़ाया ॥३३६।। इस बाणसे चक्रवर्तीका पुत्र अवश्य ही मारा जायेगा यह जानकर - भूमिगोचरी और विद्याधरोंके अधिपति राजाओंने बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न किया ॥३३७।। उस बाणने नौ रथ, सारथिसहित आठों अर्धचन्द्र और सब बाण वज्रकी तरह भस्म कर दिये ॥३३८॥ जिसका मान भंग हो गया है ऐसा अर्ककीति, जिसके दाँत और कट गयो है ऐसे हाथीके समान अथवा जिसका शस्त्र नष्ट हो गया है ऐसे यमराजकी तरह चेष्टारहित खड़ा था इसलिए कहना पड़ता है कि देवको इस दुःख देनेवाली चेष्टाको धिक्कार हो ॥३३९॥ जिस प्रकार शस्त्ररहित किन्तु उपायको "जाननेवाले पुरुष पैरोंकी पाशसे दाँतोंको दबोचकर वीर हाथको पकड़ लेते हैं उसी प्रकार जयकुमारने अर्ककीतिको पकड़ लिया ॥३४०॥ तिरस्कार होनेके पहले-पहले जो लड़ना है वह शूरवीरता है और तिरस्कार प्राप्त कर धृष्टतावश जो पीछेसे लड़ता है वह दूसरा तिरस्कार है ।।३४१।। यद्यपि उस अर्ककीतिका लोकोत्तर वंश था, चक्रवर्ती पिता थे, युवराज पद था और भारी सेनाका, समूह उसके पास था तो भी उसकी यह दशा हुई इससे कहना पड़ता है कि दुराचार किसे पीड़ित नहीं करता है ? ॥३४२॥ चक्रवर्तीने जयकुमारको वीरपट्ट बाँधा था परन्तु इसने उनके पुत्रको घावोंकी पट्टियोंका स्थान बना दिया, जरा कार्यकी इस उलटपुलटको तो देखो ॥३४३॥ सब शत्रुओंको जीतनेवाले जयकुमारने अग्निपर पड़ते हुए पतंगके समान तथा हथियाररहित अर्ककीतिको अपने रथमें डालकर और स्वयं एक ऊँचे हाथीपर आरूढ़ होकर सिंहके समान पराक्रमी शत्रुभूत विद्याधर राजाओंको वरुणके
१ अर्द्धचन्द्रशरम् । २ सहस्ररवि । ३ जयकुमारः । ४ वजकाण्डकोदण्डे । ५ प्रवर्तयन् । ६ चक्रिणः १७. जयेन । ८ सम्भ्रान्तिम् । ९ उत्पादितवान् । १० अर्द्धचन्द्रबाणः । ११ कृतग्रहणम् । दन्तग्रहं ल०। १२ गजबन्धनकुशलः । १३ अपगतशस्त्रैः । १४ अर्ककीर्तिम् । १५ ग्राहयति स्म । १६ धृष्टत्वात् । १७ पतत्सूर्यसदृशम् । १८ पाशपाणिवत् भवन्तीत्यर्थः । 'प्रचेताः वरुणः पाशी यादसां पतिरप्पतिः' इत्यभिधानात् । १९ नियमितवान्।