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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
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आहवोऽपरिहार्योऽयं ममाद्य भवता सह । अकीर्तिश्चावयों रस्मिन्नाकल्पस्थायिनी ध्रुवम् ॥ २४६॥ चक्री सुतेषु राज्यस्य योग्यं त्वामेव मन्यते । स्यात्तस्यापि मनःपीडा न वेत्यन्यायवर्तनात् ॥ २५० ॥ ● द्रोग्न्न्यायस्य भूभर्तुस्तव चैतांस्ततः क्षणात् । दुष्टान् सखेचरान् सर्वान् बध्वाद्य भवतोऽर्पये ॥२५१॥ नागमारुह्य तिष्ठत्वं काष्ठान्तं" प्रार्थितो मया । अन्यायो हि पराभूतिर्न तत्यागो महीयसः ॥ २५२ ॥ कुमार, समरे हानिस्तबैव महती मया । हन्त्यात्मानमनुन्मत्तः कः स तीक्ष्णासिना स्वयम् ॥ २५३ ॥ अभव्य इव सद्धर्ममपकयेत्युदीरितम् । "आघातयितुमारेभे गजेन स गजाधिपम् ॥ २५४ ॥ तदा जयोऽध्यतिक्रुद्धो गजयुद्धविशारदः । नवभिर्विजयार्द्धेन दन्तघातैरपातयत् ? ॥२५५॥ नवापि कुपितेभेन्नवदन्ताहतिक्षताः । अष्टचन्द्रार्क कीर्तीनां प्रपेतुर्हतदन्तिनः ॥ २५६ ॥ चक्रिसूनोः पुनः सेनापरितोऽयाद् युयुत्सया । "तदा तदायुर्वा "रक्षदहः क्षयमपद्यत ॥ २५७ ॥ सोढुमर्कः खलस्तेजो "जयस्याशक्नुवन्निव । जयन् जयोद्गमच्छायां संहृताशेषदीधितिः ॥ २५८॥ " शरैरिवोखैरारतेर्विमुक्तैः खचरान् प्रति । जयीयैः २ स्वाङ्गसंलग्नैः २क्षरत्क्षतंजरन्जितैः ॥ २५६॥ गतप्रतापः 'कृच्छात्मा सर्वनेत्राप्रियस्तदा । पपात कातरीभूय करालम्बितभूधरः ॥ २६० ॥
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मेरा आपके साथ जो युद्ध चल रहा है वह आज ही बन्द कर देने योग्य है क्योंकि इससे हम दोनोंकी कल्पान्तकाल तक टिकनेवाली अपकीर्ति अवश्य होगी ॥ २४९ ॥ चक्रवर्ती सब पुत्रों में राज्यके योग्य आपको ही मानता है, क्या आपके इस अन्यायमें प्रवृत्ति करनेसे उसके मनको पीड़ा नहीं होगी ? ॥ २५० ॥ भरत महाराजके न्यायमार्गका द्रोह करनेवाले तुम्हारे इन सभी दुष्ट पुरुषों को विद्याधरोंके साथ-साथ बांधकर आज क्षणभरमें ही तुम्हें सौंप देता हूँ ॥२५१ ॥ मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप हाथीपर चढ़े हुए यहाँ क्षण भर ठहरिए क्योंकि महापुरुषोंका अन्याय करना ही तिरस्कार करना है, अन्यायका त्याग करना तिरस्कार नहीं है ॥२५२॥ हे कुमार, मेरे साथ युद्ध करनेमें तुम्हारी ही सबसे बड़ी हानि है क्योंकि ऐसा कौन सावधान है जो पैनी तलवारसे अपनी आत्माका स्वयं घात करे || २५३ || जिस प्रकार अभव्य जीव समीचीन धर्मको नहीं सुनता उसी प्रकार जयकुमारके कहे हुए वचन अर्ककीर्तिने नहीं सुने और अपने हाथीसे जयकुमारके उत्तम हाथीपर प्रहार करवाना शुरू कर दिया || २५४ ॥ उस समय हाथियों के साथ युद्ध करनेमें अत्यन्त निपुण जयकुमार भी अधिक क्रोधित हो उठा, उसने अपने विजयार्धं हाथीके द्वारा दाँतोंके नौ प्रहारोंसे अर्ककीर्ति तथा अष्टचन्द्र विद्याधरों के नौ हाथियोंको घायल करवा दिया ॥ २५५ ॥ अर्ककीर्ति तथा अष्टचन्द्र विद्याधरोंके नौके
ही हाथी क्रोधित हुए विजयार्ध हाथीके दाँतोंके नौ प्रहारोंसे घायल होकर जमीनपर गिर पड़े || २५६ ॥ जिस समय जयकुमारने युद्धकी इच्छासे अर्ककीर्तिकी सेनाको चारों ओर से घेरा उसी समय मानो उसकी आयुकी रक्षा करता हुआ ही दिन अस्त हो गया ॥ २५७॥ जो अपनी कान्तिसे जासीनके फूलकी कान्तिको जीत रहा है, जिसने अपनी सब किरणें संकोच ली हैं, जो लाल-लाल किरणोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो जयकुमारने विद्याधरोंके प्रति जो बाण छोड़े थे वे सब ही विद्याधरोंके निकलते हुए रुधिरसे अनुरंजित होकर उसके शरीरमें जा लगे हों, जिसका सब प्रताप नष्ट हो गया है, जो क्रूर है और सबके नेत्रोंको अप्रिय है ऐसा वह दुष्ट ४तिष्ठात्र ल०, इ०, प०, अ०, स० । ५ क्षणपर्य९ एवमुक्तवचनं श्रुत्वा । १० मारयितुम् । ११ अर्क
१ आहवः परि-ल० । २ युद्धे सति । ३ हन्तुमिच्छून् । न्तम् । ६ अन्यायत्यागः । ७ महात्मनः । ८ बुद्धिमान् । कीर्तिः । १२ - रघातयत् ल०, अ०, प०, स०, इ० । १३ अगमत् । १४ योद्धुमिच्छया । १५ यदा इ० अ०, प० । १६ इव । १७ रक्षतीति रक्षत् । १८ दिवसः । १९ जयकुमारस्य । २० कुसुम । २१ किरणैः । २२ जयकुमारसम्बन्धिभिः । २३ स्रवत् । २४ दुःखकारिस्वभावः ।