Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 428
________________ आदिपुराणम् १३१४ 73 atar fasaara वन्तो रुद्धदिङ्मुखाः । कांस्कान् शृणाम नेतीव सुतीक्ष्णाः शरवोऽपतन् ॥ २४०॥ "प्रभो जयादेशादिभेन्द्र" वा मृगाधिपः । आक्रम्य विक्रमी शस्त्र ररौत्सीत्तं विहायसि ॥ २४१॥ तमोऽग्निगजमेघादिविद्याः सुनमियोजिताः । तुच्छीकृत्य स स विच्छिद्य (?) सहसा भास्करादिभिः ॥२४२॥ जयपुण्योदयात्सद्यो विजिग्ये खचराधिपम् । संग्रामेऽनुगुणे देवे " क्षोदिमा बंहिमेति" न ॥ २४३॥ प्रवृद्धप्रावृडारम्भसम्भृताम्भोधरावलिम् । "विलङ्घ्यानेकपानीकं " कौमारं " जयमारुणत् ॥ २४४ ॥ जयोऽप्यभिमुखीकृत्य विजयार्द्धं गजाधिपम् । धीरोद्धतं रुषा प्राप्तं "धीरोदात्तोऽब्रवीदिदम् ॥२४५॥ न्यायमार्गाः प्रवर्त्यन्ते सम्यक् सर्वेऽपि चक्रिणा । तेषामेभिर्दुराचारैः कृतस्त्वं पारिपन्थिकः ॥२४६॥ बुद्धिमत्वं तत्राहार्यबुद्धित्वमपि दूषणम्। कुमार नीयसे "पापैस्तृतीय २७ तद्विगर्हितम् ॥२४७॥ अन्तःकोपोऽप्ययं पापैर्महानुत्थापितो पृथा । सर्वतन्त्रक्षयो मतुः सहसा येन तादृशः ॥ २४८ ॥ २९ ४१० भयंकर हैं, किंकरोंके समान काम करनेवाले हैं, वेगके कारण शब्द कर रहे हैं और जिन्होंने सब दिशाएँ रोक ली है ऐसे वे तीक्ष्ण बाण हम किस किसको नष्ट नहीं करें ? अर्थात् सभीको नष्ट करें यही सोचकर मानो सब सेनापर पड़ रहे थे || २४० || जिस प्रकार सिंह हाथीपर आक्रमण करता है उसी प्रकार खूब पराक्रमी मेघप्रभ नामके विद्याधरने जयकुमारकी आज्ञासे उस सुनमपर आक्रमण कर उसे शस्त्रोंके द्वारा आकाशमें ही रोक लिया || २४१ ॥ मेघप्रभने सुनके द्वारा चलाये हुए तमोबाण, अग्निबाण, गजबाण और मेघबाण आदि विद्यामयी बाणोंको सूर्यबाण, जलबाण, सिंहबाण और पवनबाण आदि अनेक विद्यामयी बाणोंसे तुच्छ समझकर बहुत शीघ्र नष्ट कर दिया || २४२ || इस प्रकार मेघप्रभने उस युद्ध में जयकुमारके पुण्योदयसे विद्याधरोंके अधिपति सुनमिको शीघ्र ही जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि देवके अनुकूल रहनेपर छोटापन और बड़प्पनका व्यवहार नहीं होता है । भावार्थ - भाग्य के अनुकूल होनेपर छोटा भी जीत जाता है और बड़ा भी हार जाता है || २४३ || बढ़ी हुई वर्षाऋतुके प्रारम्भमें इकट्ठी हुई मेघमालाके समान हाथियोंकी सेनाको उल्लंघन कर अर्ककीर्ति पक्षके जयकुमार को रोक लिया ॥ २४४ ॥ इधर धीर और उदात्त जयकुमारने भी अपना विजयार्ध नामका श्रेष्ठ हाथी क्रोधसे प्राप्त हुए धीर तथा उद्धत अर्ककीर्ति के सामने चलाकर उससे इस प्रकार कहना शुरू किया ||२४५ || वह कहने लगा कि चक्रवर्तीके द्वारा सभी न्यायमार्ग अच्छी तरह चलाये जाते हैं परन्तु इन दुराचारी लोगोंने तुझे उन न्यायमार्गों का शत्रु बना दिया हैः ॥ २४६ ॥ हे कुमार, यद्यपि तू बुद्धिमान् है परन्तु आहार्य बुद्धिवाला होना अर्थात् दूसरेके कहे अनुसार कार्य करना यह तेरा दोष भी है । इसके सिवाय तू पाप या पापी पुरुषोंके अनुकूल हो रहा है सो यह भी तेरा तीसरा दूषण है || २४७॥ इन पापी लोगोंने तेरे अन्तःकरणमें यह बड़ा भारी क्रोध व्यर्थ ही उत्पन्न कर दिया है जिससे भरत महाराजकी सब सेनाका ऐसा एक साथ क्षय हो रहा है ॥ २४८॥ १ किङ्करस्वभावाः । २ ध्वनन्तः । ३ कान् शत्रन् शृणाम काम् शत्रून् न शृणाम न हन्म इति इव । शृ कृ मृ हिंसायाम् । लोट् । ४ बाणाः । ५ विद्याधरः । ६ गजाधिपम् । अनेन समबलत्वं सूचितम् । ७ रुरोध । ८ सुनमिम् । ९ असाराः कृत्वा । १० चिच्छेद त०, ब०, पुस्तके विहाय सर्वत्र । ११ सूर्यजलसिंहवाय्वादिभिः । १२ अजयत् । १३ दैवे सहाये सति । १४ क्षुद्रत्वम् । १५ महत्त्वम् । १६ अतिशय्य । १७ गजबलम् । १८ अर्ककीर्तिसम्बन्धि | १९ जयकुमारं रुरोध । २० अर्ककीर्तिम् । २१ जयकुमारः । २२ मार्गाणाम् । २३ प्रतीयमानैः । २४ विरोधी भूत्वा । २५ प्रेरकोपनीतबुद्धित्वम् । २६ पापोपेतैः । २७ मोहनीयं कामं वा । २८ सद्भिः निन्दितम् । २९ पापिष्ठैः । ३० कोपेन ।

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