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आदिपुराणम्
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atar fasaara वन्तो रुद्धदिङ्मुखाः । कांस्कान् शृणाम नेतीव सुतीक्ष्णाः शरवोऽपतन् ॥ २४०॥ "प्रभो जयादेशादिभेन्द्र" वा मृगाधिपः । आक्रम्य विक्रमी शस्त्र ररौत्सीत्तं विहायसि ॥ २४१॥ तमोऽग्निगजमेघादिविद्याः सुनमियोजिताः । तुच्छीकृत्य स स विच्छिद्य (?) सहसा भास्करादिभिः ॥२४२॥ जयपुण्योदयात्सद्यो विजिग्ये खचराधिपम् । संग्रामेऽनुगुणे देवे " क्षोदिमा बंहिमेति" न ॥ २४३॥ प्रवृद्धप्रावृडारम्भसम्भृताम्भोधरावलिम् । "विलङ्घ्यानेकपानीकं " कौमारं " जयमारुणत् ॥ २४४ ॥ जयोऽप्यभिमुखीकृत्य विजयार्द्धं गजाधिपम् । धीरोद्धतं रुषा प्राप्तं "धीरोदात्तोऽब्रवीदिदम् ॥२४५॥ न्यायमार्गाः प्रवर्त्यन्ते सम्यक् सर्वेऽपि चक्रिणा । तेषामेभिर्दुराचारैः कृतस्त्वं पारिपन्थिकः ॥२४६॥ बुद्धिमत्वं तत्राहार्यबुद्धित्वमपि दूषणम्। कुमार नीयसे "पापैस्तृतीय २७ तद्विगर्हितम् ॥२४७॥ अन्तःकोपोऽप्ययं पापैर्महानुत्थापितो पृथा । सर्वतन्त्रक्षयो मतुः सहसा येन तादृशः ॥ २४८ ॥
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भयंकर हैं, किंकरोंके समान काम करनेवाले हैं, वेगके कारण शब्द कर रहे हैं और जिन्होंने सब दिशाएँ रोक ली है ऐसे वे तीक्ष्ण बाण हम किस किसको नष्ट नहीं करें ? अर्थात् सभीको नष्ट करें यही सोचकर मानो सब सेनापर पड़ रहे थे || २४० || जिस प्रकार सिंह हाथीपर आक्रमण करता है उसी प्रकार खूब पराक्रमी मेघप्रभ नामके विद्याधरने जयकुमारकी आज्ञासे उस सुनमपर आक्रमण कर उसे शस्त्रोंके द्वारा आकाशमें ही रोक लिया || २४१ ॥ मेघप्रभने सुनके द्वारा चलाये हुए तमोबाण, अग्निबाण, गजबाण और मेघबाण आदि विद्यामयी बाणोंको सूर्यबाण, जलबाण, सिंहबाण और पवनबाण आदि अनेक विद्यामयी बाणोंसे तुच्छ समझकर बहुत शीघ्र नष्ट कर दिया || २४२ || इस प्रकार मेघप्रभने उस युद्ध में जयकुमारके पुण्योदयसे विद्याधरोंके अधिपति सुनमिको शीघ्र ही जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि देवके अनुकूल रहनेपर छोटापन और बड़प्पनका व्यवहार नहीं होता है । भावार्थ - भाग्य के अनुकूल होनेपर छोटा भी जीत जाता है और बड़ा भी हार जाता है || २४३ || बढ़ी हुई वर्षाऋतुके प्रारम्भमें इकट्ठी हुई मेघमालाके समान हाथियोंकी सेनाको उल्लंघन कर अर्ककीर्ति पक्षके
जयकुमार को रोक लिया ॥ २४४ ॥ इधर धीर और उदात्त जयकुमारने भी अपना विजयार्ध नामका श्रेष्ठ हाथी क्रोधसे प्राप्त हुए धीर तथा उद्धत अर्ककीर्ति के सामने चलाकर उससे इस प्रकार कहना शुरू किया ||२४५ || वह कहने लगा कि चक्रवर्तीके द्वारा सभी न्यायमार्ग अच्छी तरह चलाये जाते हैं परन्तु इन दुराचारी लोगोंने तुझे उन न्यायमार्गों का शत्रु बना दिया हैः ॥ २४६ ॥ हे कुमार, यद्यपि तू बुद्धिमान् है परन्तु आहार्य बुद्धिवाला होना अर्थात् दूसरेके कहे अनुसार कार्य करना यह तेरा दोष भी है । इसके सिवाय तू पाप या पापी पुरुषोंके अनुकूल हो रहा है सो यह भी तेरा तीसरा दूषण है || २४७॥ इन पापी लोगोंने तेरे अन्तःकरणमें यह बड़ा भारी क्रोध व्यर्थ ही उत्पन्न कर दिया है जिससे भरत महाराजकी सब सेनाका ऐसा एक साथ क्षय हो रहा है ॥ २४८॥
१ किङ्करस्वभावाः । २ ध्वनन्तः । ३ कान् शत्रन् शृणाम काम् शत्रून् न शृणाम न हन्म इति इव । शृ कृ मृ हिंसायाम् । लोट् । ४ बाणाः । ५ विद्याधरः । ६ गजाधिपम् । अनेन समबलत्वं सूचितम् । ७ रुरोध । ८ सुनमिम् । ९ असाराः कृत्वा । १० चिच्छेद त०, ब०, पुस्तके विहाय सर्वत्र । ११ सूर्यजलसिंहवाय्वादिभिः । १२ अजयत् । १३ दैवे सहाये सति । १४ क्षुद्रत्वम् । १५ महत्त्वम् । १६ अतिशय्य । १७ गजबलम् । १८ अर्ककीर्तिसम्बन्धि | १९ जयकुमारं रुरोध । २० अर्ककीर्तिम् । २१ जयकुमारः । २२ मार्गाणाम् । २३ प्रतीयमानैः । २४ विरोधी भूत्वा । २५ प्रेरकोपनीतबुद्धित्वम् । २६ पापोपेतैः । २७ मोहनीयं कामं वा । २८ सद्भिः निन्दितम् । २९ पापिष्ठैः । ३० कोपेन ।