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चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
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कस्यचिद् क्रोधसंहारः स्मृतिश्च परमेष्ठिनि । 'निष्ठायामायुषोऽ त्रासीदभ्यासात् किं न जायते ॥२३०॥ हृदि नाराचनिर्मिज्ञा वक्त्रात् सवदसृक प्लवाः । शिवाकृष्टान्त्रतन्त्रान्ताः पर्यन्तव्यस्तपस्कराः ॥ २३.१ ॥ गृद्धपक्षानिलोच्छिन्नमूर्च्छाः संप्राप्तसंज्ञकाः । समाधाय हि ते. शुद्धां श्रद्धां शूरगतिं गताः ॥ २३२ ॥ छिन्नैश्चक्रेण शूराणां शिरोऽम्भोजैवैिकासिभिः । रणाङ्गणोऽर्चितो बामात् नृश्यै" जयजयश्रियः "॥२३३॥ स्वामिसंमानदानादिमहोप' कृति निर्भराः । प्राप्याधमर्णतां प्राणैः सेवां संपाद्य सेवकाः ॥२३४॥ स्वप्राणव्ययसंतुष्टैस्तद्भूभृद्भिः स्वभूभृतः " । लब्धपूजान् विधायान्ये धन्या "नैर्ऋण्यमागमन् ॥ मुक्ता दुतं पेतुरविमुक्तजयाः शराः । अष्टचन्द्रान् प्रति प्रोच्चैः प्रदीप्योल्कोपमाः समम् ॥ २३६॥ " जयप्रहितशस्त्राली २ तैर्निषिद्धा च विद्यया । ज्वलन्ती परितश्चन्द्रान् परिवेषाकृतिर्बभौ ॥२३७॥ विश्वविद्याधराधीशमादिराजात्मजस्तदा । २५४ 'द्विषो "निःशेषयाशेषानिश्याह सुनमिं रुषा ॥ २३८॥ सोऽपि सर्वैः खगैः सार्द्धं निर्द्धं तारातिविक्रमः । वह्निवृष्टिमिवाकाशे ववर्ष शरसंततिम् ॥२३९॥
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शूरवीरोंने हृदय में अर्हन्त भगवान्को स्थापन कर प्राण छोड़े थे || २२८ - २२९ ।। किसी योद्धाके आयुकी समाप्ति के समय क्रोध शान्त हो गया था और परमेष्ठियोंका स्मरण होने लगा था सो ठीक है क्योंकि अभ्याससे क्या-क्या सिद्ध नहीं होता ? || २३० ॥ जिनके हृदय बाणोंसे छिन्नभिन्न हो गये हैं, मुँहसे रुधिरका प्रवाह बह रहा है, सियारोंने जिनकी अंतड़ियोंकी ताँतों अन्तभाग तकको खींच लिया है और जिनके हाथ-पैर फट गये हैं ऐसे कितने ही योद्धा गोधों के पंखोंकी हवासे मूर्च्छारहित होकर कुछ-कुछ सचेत हो गये थे और शुद्ध श्रद्धा धारण कर शूरगतिस्वर्गं गतिको प्राप्त हुए थे ||२३१ - २३२।। चक्र नामक शस्त्रसे कटे हुए शूरवीरोंके प्रफुल्लित मुखरूपी कमलोंसे भरी हुई वह युद्धकी भूमि ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जयकुमारकी विजयलक्ष्मीके नृत्योंसे ही सुशोभित हो रही हो || २३३|| स्वामीके द्वारा पाये हुए आदर सत्कार आदि बड़े-बड़े उपकारोंसे दबे हुए कितने ही सेवक लोग अपने प्राणों द्वारा स्वामीकी सेवा कर ऊॠण अवस्थाको प्राप्त हुए थे और कितने ही धन्य सेवक, अपने-अपने प्राण देकर सन्तुष्ट हुए शत्रु राजाओंसे अपने स्वामियोंकी पूजा-प्रतिष्ठा कराकर कर्जरहित हुए थे । भावार्थ-- कितने ही सेवक लड़ते-लड़ते मर गये थे और कितने ही शत्रुओंको मारकर कृतार्थं हुए थे || २३४ - २३५ ।। जिन्होंने विजय प्राप्त करना छोड़ा नहीं है और जो अपनी बड़ी भारी कान्तिसे उल्काके समान जान पड़ते हैं ऐसे जयकुमारके छोड़े हुए बाण अष्टचन्द्र विद्याधरोंके पास बहुत शीघ्र एक साथ पड़ रहे थे || २३६ ॥ जयकुमारके द्वारा छोड़ी हुई शस्त्रोंकी पंक्तियोंको उन विद्याधरोंने अपने विद्या बलसे रोक दिया था । इसलिए वे उनके चारों ओर जलती हुई खड़ी थीं और ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो चन्द्रमाओंके चारों ओर गोल परिधि ही लग रही हो ॥ २३७॥ | उसी समय आदि सम्राट् - भरत पुत्र अर्ककीर्तिने बड़े क्रोधसे सब विद्याधरोके अधिपति सुनमिसे कहा कि तुम समस्त शत्रुओं को नष्ट करो || २३८ || और शत्रुओंके पराक्रमको नष्ट करनेवाला सुनमिकुमार भी अग्नि वर्षाके समान आकाशमें बाणोंके समूहकी वर्षा करने लगा ||२३९॥ जो अत्यन्त
अन्त्रगतशस्याग्रा
१ परिसमाप्ती सत्याम् । २ रणे । ३ साध्यते ल० । ४ जम्बुकाकृष्टपुरीतत्समूहाग्रा । वा । ५ तन्त्राग्रा-ट० । ६ विक्षिप्तपादपाणयः । ७ स्पृहाम् । ८ स्वर्गम् । इन्द्रियजयवतां गतिमित्यर्थः । ९ रणरङ्गोऽन्विते -ल० । १० नर्तनाय । ११ जयकुमारस्य जयलक्ष्म्याः । १२ महोपकारातिशयाः । १३ ऋण प्राप्तिताम् । १४ शत्रुभूपालैः । १५ निजनृपतीन् । १६ ऋणवृद्धधनम् । ऋणान्निष्क्रान्तत्वम् । १७ जयकुमारेणोत्सृष्टाः । १८ अत्यक्तजयाः । १९ प्रदीप्त्योल्कोपमाः ल० । २० युगपत् । २१ जयकुमारेणाविद्ध । २२ शत्रुभिः । २३ अष्टचन्द्रान् परितः, मृगाङ्कान् परितः । २४ अर्ककीर्तिः । २५ शत्रून् । २६ विनाशय । २७ सुनमिः ।
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